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[ ६३८ ] लेवे ॥ उत्तर ॥ हे मित्र इतनातो विचार करणा चाहिये कि, जब पहिले श्रीजिनवल्लभसूरिजीने सभी आचार्यों से निरपेक्ष होके नवीनही छठे कल्याणकको दिखाया तो फिर काहेको तर्क करते हो) इस तरहसे लिखकर जो शुद्ध समाचारी प्रकाशकी पुस्तकमें छ कल्याणकाधिकारे पृष्ट ८८८ में श्रीतपगच्छके श्रीकुलमन्डन सूरिजी कृत श्रीकल्पावचूरि ग्रन्थका पाठ दिखाया (तथा और भी कितनेही शास्त्र प्रमाणोंसे छठे कल्याणकको सिद्ध करके दिखाया) जिसपर न्यायांभोनिधिजीने अपने पूर्वज श्रीकुलमण्डन सूरिजीने छठे कल्याणकको अपने बनाये ग्रन्थमें लिखा उसको अपने पूर्वजका वाक्य मान्य करना तो दूर रहा परन्तु विशेषतासे उसका निषेध करनेके लिये श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजका अनुकरण करनेका श्रीकुलमण्डनसूरिजी पर आक्षेप लिखकर छठे कल्याणकके प्रमाण करनेकी बातको उड़ा दिया सो तो प्रत्यक्ष मायाचारीकी ठगाईका कारण है, क्योंकि जो शास्त्रानुसार सत्य बातका कथन होवे-उसके कथन करनेमे तो सब कोई अनुकरण करते हैं। देखो श्रीतीर्थंकर महाराजके कथनका अनुकरण श्री गणधर महाराज तथा पूर्वधर पूर्वाचार्यादि सभी परम्परागमसे-निजपरके आत्म कल्याणके लिये एक एकका अनुकरण करते आये हैं तथा ऐसेही चलता है सोही चलेगा परन्तु अविसंवादी जैनप्रवचनमें अन्यमतियोंकी तरह एक एकके विरुद्ध मनमानी गप्पोंकी बातें लिखनेका तो आत्मार्थी जैनाचार्यो में कदापि नहीं हो सकता है इसलिये-जैसे श्रीतीर्थंकर गणधरादि महाराजोंने छ.कल्याणकोंकी प्ररूपणा मूल आगमोंने कपन करी तैसेही श्रीपूर्वाधाोंने भी आगमोंको व्याख्याओंमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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