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[ ६३९ ] लिखा उसीके अनुसारसे श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजने भी छ कल्याणकोंकी प्ररूपणा करी तो यदि इसबातमें इन महाराज का आपके कहने मुजब आपके पूर्वजने अनुकरण किया भी मान लिया जावे तो भी आपकी कल्पनासे अनुकरणके बहाने आप छठे कल्याणकका निषेध करना चाहते हो तो न्यायानुसार तो कदापि नहीं हो सकता है।
और हमारी समज मुजब तो अनुकरण करने सम्बन्धी आपका लिखना भद्रजीवोंको भ्रमाननेवाला मायात्तिका ठहरता है क्योंकि हमारे पूर्वाचार्योने तो आगमानुसार अधिकमासकी गिनती वगैरह अनेक बातोंको मान्यकरके अपने बनाये ग्रन्थों में लिखी है सो जो तुम्हारे पूर्वजने हमारे पूर्वजका अनुकरण किया होता तो अधिक मासकी गिनती वगैरह जो जो बाते हमारे पूर्वजोंने मानी सो सो बातें तुम्हारे पूर्वज भी मान लेते, तबतो तुम्हारा अनुकरणका लिखना ठीक हो सकता परन्तु तुम्हारे पूर्वजने वैसा तो किया नहीं और कोई कोई बातमें अपने पूर्वाचार्य मानते होगे सो वैसा किया तो प्रत्यक्ष मालूम होता है इसीलिये हमारे पूर्वाचार्यका अनुकरण न करते अपनेको अच्छालगा वैसा कुलमण्डनमूरिजीने अपनेग्रन्थमें लिख दिया होगा सो छ कल्याणक अपनेको उचित लगे होंगे तबी लिखे और अधिक मासको गिनातीमें लेना आगमानुसार है सोही खास श्रीकुलमण्डनसूरिजीने भी अधिक मासकी गिनतीसे १३ मासोंके अर्थवाला अभिवद्धितसम्बत्सर लिखा होनेपर भी पूर्वापर विरोधका और आगमोंके प्रत्यक्ष प्रमाणोंके उत्थापनका विचार न करके उसकी गिनती करनेका निषेध करनेके लिये “विधारामृत संग्रह" नामाग्रंथ, खब कोशिश करी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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