________________
[ ६३३ ] ऊपरकी दोनों पंक्तियोंके अर्थ में ऊटपटांग मन कल्पना मुजब भावार्थ में लिखकर उन शब्दोंके ऊपर अपना कुविकल्प उठाया याने उपरोक्त नाम धारक चैत्यवासी आचार्यों की उत्सूत्रतासे अविधिरूप उन्मार्गकी कदाग्रही प्ररूपणाको हटानेके लिये, शास्त्रोक्त छठे कल्याणकके स्वरूपको न समझने वाले, तथा मन्दिरजीकी ८४ आशातना निवारणादि पूर्वक विधिसे वर्ताव करने सम्बंधी शास्त्रोंमें प्रत्यक्ष पाठ मौजूद होने पर भी श्रीमन्दिरमें रहते हुए ८४ आशातना करने वाले उन चैत्यवासियोंको श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजने सिद्धान्तके रहस्यको न जानने वाले ठहराये तथा भव्यजीवोंको श्रीजिनाज्ञानुसार शास्त्रोक्त विधिमार्गकी सत्यबातों में शुद्धश्रद्धाकी प्राप्ति पूर्वक दृढ़ ता होने के लिये अपनी विद्वत्ताकी हिम्मत शरीरप्रकृतिकी चेष्टासे खम्भा ठोकके ऊपरकी शास्त्रोक्त बातोंको सबके सामने विशेषतासे प्रकाशित करी जिसके तात्पर्यार्थको तो समझ सके नहीं इसलिये अपरकी दोनों पंक्तियोंके अक्षरोंको देख कर अपने अंतर मिथ्यात्वकी अज्ञानताका कुविकल्प भद्रजीवों पर गेरना चाहा कि, ऐसे शब्द क्यों कहे परन्तु विवेक बुद्धिसे इतना नहीं विचार किया कि श्रीजिनाज्ञाकी विराधना करके उत्सूत्र भाषणोंपूर्वक अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे कुयुक्तियोंके विकल्पोंसे भव्यजीवोंको उन्मार्गमें गेरनेवालोंके पाखण्डको हटानेके लिये इन महाराजके उपरोक कथनसे भी विशेष ज्यादा शब्द कहे जावे तोभी कोई हरजेकी बात नही है। देखिये खास न्यायांभोनिधिजीनेही उत्सूत्रप्ररूपणा करने वालों सम्बन्धी अपने बनाये “अज्ञान तिमिरभास्कर" ग्रन्थके पृष्ठ २९४२९५ के लेख में कैसे कैसे शब्द लिखे हैं सो लेखे भी इसीही ग्रन्थके पृष्ट १९८० में छप चुका है और ढूढकमतके साधुका वेषधारक जेठमलने
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com