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सो उन्होंसे विरुद्ध होकर अंधपरंपराकी मायाजालके कदाग्रहको हटानेके लिये इन महाराजने चैत्यवासियोंकी श्रीजिनाशा विरुद्धकल्पित बातोंका निषेध करके शास्त्रानुसार आज्ञामुजब विधिमार्गको सत्यबातोंको भव्यजीवोंके उपकारके लिये प्रगटकरी उसको आपलोगोंने अच्छा नहीं समझकर विद्यमान चैत्यवासियोंके आचार्यों से निरपेक्ष याने विरुद्ध होनेका लिखा इससे तो यही सिद्धहोता है कि उन चैत्यवासियोंकी उत्सूत्ररूप कल्पित बातोंको आप अच्छी समझते हैं तबही तो शास्त्रोंके रहस्य को समझे बिना उन चैत्यवासियोंकी तरह दो श्रावण होने पर शास्त्रप्रमाणसे ५० दिने पर्युषणा करनेका छोड़कर ८० दिने प्रत्यक्ष विरुद्धातासे करते हो तथा शास्त्रोक्त श्रीवीर प्रभुके छ कल्याणकोंका निषेध करके उत्सूत्रभाषण करनेवाले बनते हो और गच्छ कदाग्रहके फंदमें भोलेजीवोंको फंसातेहो इसलिये इन महाराजका सत्यकथन भी आपको अच्छा नहीं लगा इससे विपरीत होकर, कुविकल्प उठाया अन्यथा 'विद्यमान आचार्यों से निरपेक्ष होकर ऐसे अक्षर लिखके चीतोड़के चैत्यवासियोंके विरुद्ध होनेका कदापि न लिखते क्योंकि इन महाराजने यहबात चीतोड़ में ही प्रगट करी है और उस समय चीतोड में चैत्यवासियोंकी मनमानी बातों में दृष्टिरागी विवेक शून्य श्रावक लोक उन्होके फंदमे पूरे पूरे फंसगये थे इससे उन्होंकी अविधि प्रचाररूपी मिथ्यात्वके अन्धकारकी मानों राजधानी जमीहुई थी उसको इन महाराजने वहां विधि :: मार्गकी श्रीजिनाचा मुजब सत्यबातोंकों प्रगटकरने रूप सूर्यके : प्रकाशसे उखेड़ डाली और उस समय वहां शुद्ध क्रियापात्र सत्य उपदेशक उग्रविहारी आचार्यो का अभाव था इसलिये "विद्यमान आचार्यो से" इन अक्षरोंसे उन चैत्यवासियोंके सिवाय आत्मार्थी
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