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चैत्यावास निषेध पूर्वक चैत्यको शास्त्रोक्त विधिका तथा आगमों में कहा हुआ छठा कल्याणकका कथन किया सो तो उपरोक पाठमें प्रगट अक्षरहै तिसको तो द्रव्य लोचन वाला भी अच्छीतरहले देख सकताहै परन्तु इतने बड़े विद्वान् न्यायांभोनिधिजी बन करके भी अपने कल्पित कदाग्रहके हठको स्थापनेके आग्रहमें पड़ करके दृष्टिरागियोंसे पूजा मान्यता करानेके लिये आगमोक्न छठे कल्याणककी सत्य बातको उड़ाकर वृथा द्वेष बुद्धिसे उन्मत्तकी तरह "पूर्वाचार्यों को सिद्धान्तके रहस्यको न जाननेवाले ठहराकर विद्यमान आचार्यों से निरपेक्ष होकर यह छठा कल्याणक नवीन कथन किया" इसतरहके अक्षर लिखके छठे कल्याणककी नवीन प्ररूपणा करनेका लिखते कुछ शर्म भी न आई। हा। अतीव खेदः ? अपनी पूजा मानता तथा विद्वत्ता और गच्छ कदाग्रहके हठवादको जमानेके लिये कितना बड़ाभारी अनर्थ कर दिया और ऐसे महान् अनर्थ से अपने और अपनी अंधपरंपराकी मायाजालमें फँसनेवाले दृष्टिरागी भद्रजीवोंके संसारभ्रमण दुर्लभ बोधिपनेके दीर्धकर्मों का कुछभी विचार नहीं किया यही तो विशेषरूपसे बाह्य आडंबरियोंकी पाखंडपूजासूप गड्डरीह प्रवाही कलयुगकी महिमाके सिवाय और क्या होगा सो इसको आत्मार्थी श्रीजिनाज्ञाराधनाभिलाषी निष्पक्षपाती विवेकी तत्वज्ञ सज्जन स्वयं विचार लेना।
और “विद्यमान आचार्यों से निरपेक्ष होकर यह छठा कल्याणक कथन किया” इसपर भी मेरेको इतना ही कहना है कि श्रीजिनवमभसूरिजीमहाराजके समयमें चीतोडनगरमें द्रव्यलिङ्गको धारणकरनेवाले उत्सूत्रभाषी और कल्पित आलंबनोसे अविधि उप उन्मार्गमें भक्तोसमेत आप चलनेवाले चैत्यवासी आचार्य
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