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[ ६२६ ] भी नहीं आया है ऐसा छठा कल्याणक कहा है" इस तरह भावार्थमें वारम्वार छठे कल्याणकको लिखके दृष्टिरागी विवेक शून्य अन्धपरंपरा मुजब चलने वाले गच्छ कदाग्रही अज्ञानी जीवोंके आगे मनमाना भावार्थ लिख दिया परन्तु इस प्रकारको मायाचारी करके अभिनिवेशिकसे महान् अनर्थके विपाकोंको भूल गये होंगे अन्यथा चैत्यवासादि निषेधके विषयको छोड़कर आगमोक्त छ कल्याणककी सत्यबातको नवीन प्ररूपणारूप असत्य ठहरानेका ऐसा महान् अनर्थ कारी प्रयत्न कदापि न करते औरखंभे ठोक कर छठे कल्याणकी प्ररूपणा करते सब पूर्वाचार्यो को अज्ञानी ठहराने सम्बन्धी श्रीजिनवल्लभसूरिजी के लिये न्यायांभीनिधिजीने लिखा सो व्यर्थ ही अज्ञानतासे महान् अनर्थ करके उन्मार्गके दोषाधिकारी बनगये परन्तु खम्भा ठोककर छठे कल्याणककी नवीन प्ररूपणा करने में सब पूर्वाचार्यो को अज्ञानी ठहरानेका लिखा सो सिद्ध नहीं होसका
और मायाचारीके सब भेद खुल गये तथा 'प्रकर्षेणेदमित्थ मेवभवति' इत्यादि दोनों पंकियोंके भावार्थमें चैत्यवासी अज्ञानी उत्सूत्रप्ररूपक दूव्य लिंगियों सम्बन्धी सब पूर्वापरका विषय सम्बन्धके सबी भेद भी खुल गये और-आगमोक्त छठा कल्याणक ठहरगया इसको विशेषतासे तो तत्वज्ञजन स्वयं विचार लेवेंगे। ___और 'यो न शेष सूरीणां' इसके अर्थ में जितने होगये' ऐसे लिखकर सबपूर्वाचार्यो का ग्रहण किया सोभी अज्ञानताका कारण है क्योंकि 'शेष,कहनेसे तो सिद्धान्तके रहस्यको जाननेवाले तत्वज्ञानी आज्ञाआराधक शुद्ध प्ररूपणा करने वाले आत्मार्थी आचार्यो से बाकीके इसलोक स्वार्थी चैत्यवासी आचार्य नाम धारकोंका ग्रहण होता है परन्तु सब पूर्वाधार्यो का ब्रहण तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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