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[ ६२५ ] इम अक्षरोंसे जो पहिले चैत्यवास निषेध वगैरह विषय अतिशय विशेष करके दिखाये गये हैं उनमें ८४ आशातमाओंका निवारणादि चैत्य (मन्दिर) की विधि वगैरह बातों सम्बन्धी पूर्वमें लिखा गया है वो पूर्वोक्त बातोंके विषयोंके सम्बन्धकी उन सब बातोंको यहां ग्रहण करनेके लियेही तो उपरोक्त वाक्य टीका कारने खुलासा पूर्वक लिखे है सो उन सब बातोंके विषयों सम्बन्धी "प्रकर्षेणेद मित्थमेव भवति योग्त्रार्थसहिष्णु सवावदीत्विति” तथा “यो न शेष सूरीणां” इत्यादि यह दोनों पंक्ति लिखकर "अतिशय करके उपरोक्त चैत्यवास निवारणादि सम्बन्धी जो कथन किया है सो वैसेही है इसमें अन्यथा नहीं होसकता यह बात किसीको पसन्द नहीं होतो सामने आकर कथन करो" सो इस तरह चैत्यवास निवारणादि सम्बन्धी "स्कंधास्फालनपूर्वक साधितः सकल प्रत्यक्ष प्रकाशितः” तथा "यो न शेष सूरीणामज्ञात सिद्धान्त रहस्यनां लोचन पथेपि दृष्टिमार्ग आस्तां श्रुतिपथे ब्रजति पाति" यह वाक्य कहे हैं सो तो निष्पक्षपाती विवेकी तत्व दृष्टिवाले अल्पज्ञ भी पूर्वापर सम्बन्ध सहित अर्थकरने वाले अच्छी तरहसे समझ सकते हैं। तिसपर भी न्यायांभोनिधिजी होकरके भी चैत्यवास निवारणादिकके सम्बन्धको टीकाकारके अभिप्रायको और पूर्वापरके पाठकी विषयको उपयोग शून्यतासे जाने बिना अथवा अभिनिवेशिक मिथ्यात्वकी मायाचारीसे जान बूझ करके चैत्यवासके विषयको छुपा कर 'प्रकर्षेणेद मित्थमेव भवति' इसके अर्थमें 'अतिशय करके यह छठा कल्याणकही है, तथा 'योनशेषसूरीणा' के अर्थमें “जो यह छठा कल्याणक नहीं जाने है सिद्धांतके रहस्य ऐसे जितने हो गये आचार्य उनोंके कर्णपथमें तो दूररहो परन्तु लोचनपथमें
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