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कदाग्रहको पुष्ट करने में तो संसार वृद्धिके सिवाय और कुछ सार नहीं है ॥ मेरेको तो भव्य जीवोंके उपकारार्थ तथा आप लोगोंकी धर्मवन्धुकी प्रीतिसे उत्सूत्र प्ररूपणके कदाग्रहका निषेध पूर्वक भगवान्को आज्ञानुसार सत्य बातका दर्शाव
और हितशिक्षा लिखना उचित था सो लिख दिखाया मान्य करना या न करना आपलोगोंकी इच्छाकी बात है।
और आगे फिर भी न्यायांभोनिधिजीने जैन सिद्धान्त समाचारीके पृष्ठ ६८ से १० की पंक्ति १६ वों तक श्रीपंचाशकजी तथा उसके कृत्तिका पाठ शब्दार्थ सहित लिखकर श्रीमहावीरस्वामीके पांच कल्याणकोंका स्थापनपूर्वक छ कल्याणकोंका निषेध करने के लिये परिश्रम किया सो भी अज्ञानतासे उत्सूत्र भाषण करके पूर्वापर संबंध रहित अधूरे पाठसे शास्त्रकारों के विरुद्धार्थमें अथाही भोले जीवोंको भ्रममें गेरमेके लिये अपने विशेषणको लजानेका कारण किया है क्योंकि वहां तो बहुत तीर्थंकर महाराजों संबंधी सामान्य पाठ है इसलिये उस पाठसे श्रीकल्पसूत्रादि शास्त्रों में प्रगटपने विशेष करके जो छ कल्या. णकोंका कथन किया है सो निषेध कदापि नहीं हो सकता है क्योंकि देखो जैसे श्रीहेमचंद्राचार्याजी कृत श्रीत्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्रके दशर्वे पर्वमें श्रीवीरप्रभुके चरित्र में चौदह स्वप्नाधिकारे प्रथम स्वप्नमें सिंहका वर्णन देखकर और श्रीगणधर महाराजकृत प्रोकल्पसूत्र में श्रीवोरप्रभुके चरित्र में चौदह स्वप्ना. धिकारे प्रथम स्वप्न में हस्तीका वर्णन देखकर मुगुरुसे उसी में सामान्य विशेषताकी अपेक्षाको समझे बिना, प्रथम स्वप्नमें हस्तीका स्थापन करके सिंहका निषेध करे तो उत्सूत्रभाषणका दोष लगे तैसेही श्रीपंचाशकजीके पाठसे पांचका स्थापन करके मोकल्पसूत्रादि अनेक शास्त्रों में प्रगटपने छ कहे हैं जिन्होंको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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