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भ्रांतिवाला पाठ ठहरामेका उद्यम किया है तो यह कलयुगी पाखण्डियोंकी मायाजालका कुछ भी पार है, हा ! हा ! अतीव खेदः !!! ऐसे विद्वान् इतना अनर्थ करते कुछ भी लज्जा नहीं करते और भद्र जीवोंके आगे जगत पूज्य जैसी बाह्य वृत्ति करके आडम्बर दिखाकर न्यायके समुद्र, शुद्ध प्ररूपक, गीतार्थ, महात्मा बनते हैं जिन्होंकी आत्माका कैसे सुधार होगा सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने-परन्तु उन्होंकी मायाजालमें फंसने वाले भोले जीवोंको मेरी यही सूचना है, कि हे जिनाज्ञाइच्छक आत्मार्थी भव्यजीवों तुम्हारी आत्माका कल्याण करना चाहते हो तो गुरु तथा गच्छके पक्षपातको और दृष्टि रागके फन्दको छोड़कर मध्यस्थ वृतिसे इस अन्यका अवलोकन पूर्वक विवेकी सज्जनोंकी सङ्गतीने या विवेकता पूर्वक तत्त्वकी तरफ दृष्टि करके असत्यका त्याग पूर्वक सत्यको ग्रहण करके अपनी आत्माके कल्याणके कार्य में उद्यम करों, आगे इच्छा आपकी मेरेको तो लिखना उचित था सो लिख दिखाया मान्य करना या न करना यह तो आपकी खुशी की बात है,
और ( श्रीऋषभदेवजीके छ कल्याणक न माने उसका क्या कारण है ) न्यायांभोनिधिजीके इस लेखपर तो मेरेको इतना ही कहना है कि-श्रीकल्पसूत्र में श्रीऋषभदेवजीके विशेष रूपसे पांच कल्याणकों का खुलासापूर्वक पाठ मौजूद है तथा राज्या. भिषेकको कल्याणकपना प्राप्त नहीं है जिसके लिये पहिले विनयविजयजीके लेखकी समीक्षा, इसीही प्रत्यके पृष्ट ४८० से ४९७ तक खुलासा छप गया है इसलिये राज्याभिषेकको कल्याणकपममें नहीं कहा जाता परन्तु राज्याभिषेकका पाठ भापके देखने में नहीं आया होगा, यह अक्षर लिखना न्यायांभोनिधिजीके अपना दूसरा महाव्रत भङ्ग करनेवाले प्रत्यक्ष मिथ्या? बॉकि
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