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[ ६१८ ] चारियोंके सामने शास्त्रानुसार उपरोक्त सत्य बातोंका प्रकाश करने सूपबड़ा आश्चर्यकारी कार्य करके बहुत उपकार किया, इसलिये ग्रन्थकारने (श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराजने श्रीमणधरसार्द्धशतक मामा ग्रन्थमें ) श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजको ६२ गाथाओंमें अनेक तरहकी स्तुति करते श्रीवीरप्रभुके मोक्ष जानेसे लेकर जैनशासनकी व्यवस्था दिखाते हुए इह लोकस्वार्थी चैत्यवासियोंके और आत्मार्थियोंके भेद भावका दर्शाव पूर्वक उन चैत्यवासियोंके संबंधौ ‘असहायण' इत्यादि उपरोक १२२ वीं गाथा कथन करी है।
अब इस जगह पर श्रीजिनाज्ञाभिलाषी आत्मार्थी निष्पक्षपाती पाठकमणसे मेरा इतनाही कहना है कि द्रव्यलिंगी उत्सूत्र प्ररूपणा करनेवाले चैत्यवासियोंकों उपरोक्त ग्रन्थ कारने वन्दन पूजन आलाप संलाप करना तो क्या परन्तु उन्होंका अल्पकाल थोड़ी देर दर्शन मात्र भी मिथ्यात्वकी प्रप्ति करने वाला कहा और “जे जिण वयणु त्तिनु वयणं भासंति जेउ मन्नंति ॥ समद्दिठीणं तं दसणंपि संसार बुड्ढी करंति" ॥ १२० ॥ यह श्रीविशेषावश्यककी उपरोक्त प्रसंगमें एक गाथा दिखाकर जो श्रीजिनेस्वर भगवान्के वचनके विरुद्ध उत्सूत्र भाषण करता होवे उसका और उसको मान्य करने वालोंका दर्शनमात्रभी आत्मार्थी सम्यकत्वी जीवोंको त्यागना चाहिये नही तो संसार बढ़ानेवाला होता है
और उन्होंकी निज स्वार्थी कल्पित कुयुक्तियोंकी सहारेवाली ( आज्ञाविरुद्ध ) अविधिकी बातोंका निषेध करके मिथ्यात्व हटानेके लिये तथा भव्यजीवोंके उद्धारके वास्ते विधिमार्गकी आज्ञानुसार शास्त्रोंके प्रमाण पूर्वक सत्य बातोंको प्रगट करने सम्बन्धी इन महाराजने
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