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स्कंधोंका आस्फालन पूर्वक उपरोक्त बातोंको सबके सामने शास्त्रोंके प्रमाणोंसे सिद्ध करके कथन किया परन्तु जैसे-सिंहकी गर्जारवके सामने सियालियोंके टोलेमेसे. कोईभी सामने नहीं जा सकते, तैसेही श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजके कथनके सामने जाकर उन चैत्यवासियोंमेंसे कोईभी अपना मन्तव्य कथन करनेको समर्थ नहीं होसका। तब फिरभी इन महाराजने कहा कि “यो न शेष सूरीणामित्यादि" याने सुद्ध प्ररूपक संयमी साधु आदिकोंसे शेष (बाकी)के वर्तमानमें जो ये कितनेक चैत्यवासी लोग विद्वान् आचार्य कहलाते हैं परन्तु शास्त्रोंके तात्पर्यार्थ के रहस्यको नहीं जान सकते हैं उन अज्ञानी चैत्यवासियोंके क्या उपरोक्त बातों सम्बधि शास्त्रोके प्रमाणोंके प्रत्यक्ष अक्षरोको भी देखनेमें नहीं आये और सुनने में भी नहीं आये होगे सो अनंत भव भ्रमणं करानेवाली अविधि करते हुए भगवान्की आशातनाके हेतु भूत रात्रि स्नात्र, प्रतिष्ठा, नंदीमहोत्सव, बलीदेना, और श्रावक श्राविकादिकोका रात्रिको मन्दिरमें आना वगैरह कार्य कराकर चैत्यमें रहतेहुए उत्सूत्र प्ररूपणासे अपने सम्यक्त्वका तथा संयमका नाश करते हैं। और श्रीआचाराङ्गजी सूत्र तथा श्रीकल्पसूत्र और श्रीस्थानांगजी मूत्रादि अनेक शास्त्रों में छ कल्याणक कहे हैं उन्होंकों न मानकर. उन शास्त्रपाठोंके उत्थापक बनते हैं, इसप्रकारसे वेषधारियोंके कल्पित मार्गको हटानेके लिये इन महाराजने बड़ी बहादुरी प्रगटकरी और शास्त्रानुसार शुद्ध उपदेशसे बहुत भव्यजीवोंका उद्धार किया, याने वेषधारियोंकी कल्पित भ्रमकी अंधपरंपरासे भद्रजीवोंको छुड़ाये
और श्रीजिनाज्ञामें प्रवर्तमान किये इस तरहसे इन महाराजने द्रव्यलिंगी चैत्यवासियोंके उपद्रवोंका भय न किया और सब भ्रष्टा
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