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और भागे फिर भी न्यायांमीनिधिजीमें अपने विशेचणको उज्जनीयरूप करके श्रीजिनवल्लभसूरिजी को नवीन छठा कल्याणककी प्ररूपणा करनेका वृथाही कल्पित दूषण लगाने के लिये श्रीगणधर सार्द्धशतककी बड़ीटीकाके पाठका शब्दार्थको और भावार्थको समझे बिना या मायाचारीसे विद्वानोंके आगे हास्यपात्र होनेरूव और बालजीवोंको अपनी अंधपरंपराको मायाजाल के भ्रमका मिथ्यात्वमें फंसाने के लिये जनसिद्धांत समाचारी नामक पुस्तक ( परं वासश्व में तत्सूत्रभाषणोंकी और कुयुक्तियों की अंधखाड़ रूपी पुस्तक) के पृष्ठ १२ की पंक्ति वीसे पृष्ठ १३ के अंततक जो लेख अपनी बात जमाने के लिये लिखा है उसको यहां दिखाकर पीछे इसकी समीक्षा आगे करता हूं, सो लेख नीचे मुजब है ।
[ आपके बहोंने षट् कल्याणककी परूपणा किनी सोही आद्य गणधर सार्द्ध शतकका पाठ हमने लिख दिखाया है, फिर भी आपकों दृढ़ कराके वास्ते गणधर सार्द्धशतक की बृहत् वृत्तिका पाठ लिखदिखाते है । यथा-मूलं ;
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'असहायेणाऽविविहि । पसाहिओ जो न सेस रोहिं । लोअण पहेवि वच्च । पुराण जिण मय राणूयां ॥ ९२२ ॥ व्याख्या । ततोयेन भगवता असहायेनापि एकाकिनापि परकीय सहाय निरपेक्ष' अपिर्विस्मये अतीवाश्चर्य मेतत् विधिरागमोक्तः षष्ठकल्याणक रुपश्चेत्यादि विषयः पूर्व प्रदर्शितश्च प्रकारः प्रकर्षेोदमित्यमेव भवति योग्यार्थे सहिष्णुः सवावदीविति स्कंधास्फालन पूर्वकं साधितः सकल प्रत्यक्ष प्रकाशितः ॥ यो न शेष सूरीणामज्ञात सिद्धांत रहस्याना मित्यर्थः । लोचनपथेऽपि दृष्टिमार्गे प्रास्तां त्र तिपथे व्रजतियाति । उच्यते पुनर्जिन मत भगवद्वचन वेदिभिरिति ।
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