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[ ५८५] निषेध करनेका आग्रह किया सो तो प्रत्यक्ष ही मायाचारीकी धर्म ठगाईके सिवाय और कुछ भी सार मालूम नहीं होता है,
अब पाठकवर्गसे मेरा यही कहना है कि श्री खरतर गच्छ वालोंने तो शास्त्र प्रमाणानुसार श्रीमहावीरस्वामीके छ कल्याणक मान्य किये हैं इसीलिये जोरा जोरी छ कल्याणक बना लेने सम्बन्धी न्यायांभोनिधिजीका लिखना प्रत्यक्ष मिथ्या है परन्तु 'चौरडंडे कोटवालको' इस कहावत अनुसार विपरीत न्याय करके न्यायांभोनिधिजी छ कल्याणकोंका निषेध करने के लिये 'वस्तु' 'स्थान' शब्दका साहरा लेकर उसका तात्पर्यार्थ समझे बिना ही श्रीआचारांगजी तथा श्रीस्थानांगजीका मूलपाठ टीका और श्रीदशा तस्कन्धसूत्रकी चूर्णि सहित पाठोंका शास्त्रकारोंके विरुद्धार्थ में अपनी मति कल्पना मुजब अर्थ करके छ कल्याण कोंका निषेध करते हुए जोरा जोरीके साथ सूत्र पाठका अर्थ भङ्ग करके १४ तीर्थकर महाराजोंके 90 कल्याणक निषेध करनेका कितना बड़ाभारी महान् अनर्थ करके भी अपनी कल्पनाके कदाग्रहमें अज्ञ जीवों को फंसाकर अपनी बात जमाना चाहा परन्तु उत्सूत्र भाषणके महान् अनर्थसे संसार वद्धिका भय न किया-खैर, अब जो श्रीजिनाज्ञाके आराधक आत्मार्थी विवेकी जन होंगे सो तो उपरोक्त लेखके तथा इस अन्यके अवलोकनसे इनकी भ्रमजालमें कदापि नहीं पड़ेंगे और इनके समुदायवालोंको तथा इनके पक्षधारियों को भी अपना हठवाद छोड़ कर सत्य बातको ग्रहण पूर्वक भव्य जीवोंको भगवान्को आज्ञानुसार सत्य बातका शुद्ध उपदेश करके निज परके आत्म हितमें प्रवर्तमान होना चाहिये जिसमें संसार निर्वत्ति है परन्तु गुरु और गच्छके पक्षपातसे अन्ध परम्पराके
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