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च्यवनादि कहोंको वस्तु कही परन्तु कल्याणक नहीं कहे बस इसी भ्रमसे श्री महावीरस्वामीके छहीं कल्याणेकोंको निषेध करके छ वस्तु स्थापन करनेका आग्रह अन्ध परम्परासे कर लिया सो भी पूर्ण अज्ञानताकाही कारण मालूम होता है क्योंकि देखो जैसे किसी शास्त्र में कोई भी पदार्थको वस्तु शब्दसे कथन करें तो उसीके विशेषणों को भी वस्तु शब्दकी संज्ञासे कथन करनेमें कोई हरजा नहीं हो सकता तैसेही यह संसार भी षद्रव्योंरूप पदार्थों की साश्वती वस्तुओं से चलता है उसीमें जीवको भी वस्तुको संज्ञा से कहा तब उसीके प्रथम निजस्थान निगोदको तथा अनुक्रमे मानुष्य जन्मको और यावत मोक्ष निवासको भी वस्तु संज्ञा से कह सकते हैं तो अब यहां विवेकी तत्वज्ञोंको न्याय दृष्टिसे विचार करना चाहिये कि जीव द्रव्यात्मक वस्तुने कालान्तरे शुभ क्रियाके योग्यसे तीर्थंकरपना उपार्जन करके देवलोक प्राप्त किया सो उसी जीवात्मक वस्तुके तीर्थंकरपनमें आना सो विशेषके, च्यवनादि गुणोंकी श्र ेणियोंके विशेषणोको वस्तु कहने में क्या हरजा हुआ अर्थात् कुछ भी नहीं सो अब यहां इस बातपर पाठक गणसे मेरा यही कहना है कि जीव वस्तुके तीर्थ करपने मे होना सो विशेषके, च्यवनादिक विशेषणों को वस्तु कहने में आवे सो हो श्रीतीर्थंकर भगवान्के च्यवनादिकोंको कल्याणक समझमे चाहिये इसलिये च्यवनादिकोंको वस्तु कहो चाहें कल्याणक कहो सो इस बातको विवेकी तत्वज्ञों को तो दोनो शब्द एकार्थं सूचक पर्यायवाचीपने करके समान अर्थ वाले हैं और इसका विशेष निर्णय पहिले भी विनयविजयजीके लेखकी समीक्षा में इसीही ग्रन्थ के पृष्ठ ४९१ से ५०१ तक छप
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