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[ ५७१ ] चैत्यद्रव्य परिग्रह ममत्व परिहार १३, ज्ञानद्रव्य भक्षण निषेध १४, गृहस्थी गृहे भोजन करण निषध १५, इत्यादि साधु प्रावक चैत्यादि सम्बन्धी क्रिया अनुष्ठानों में शास्त्र विरुद्ध अविधि मार्गको बातोंका निषेधरूपी लुप्तभाव और शास्त्रानुसार विधिमार्गके लुप्तभावकी बातोंको प्रगट करने रूपी प्रकाशभाव करके बहुत भव्यजीवोंका श्रीजिनाजाके आराधन पूर्वक आत्मसाधनके उपकारका कारण किया तथा करगये इसलिये श्रीजिनबल्लभ सूरिजी जैसे पूर्व कोई भी गीतार्थ समर्थ पूर्वाचार्य नहीं हुए सो चीतोड़में जाकरके षष्ठ कल्याणकादि उपरकी बातोंको प्रगट नहीं करसके जिससे इन महाराजको उपरकी बातें प्रगट करनी पड़ी ऐसी कुतकं करना उपरके कारणसे सर्वथा वृथा है क्योंकि जब चीतोड़में तो क्या परन्तु उसी देशही माय करके सबी जगहपर भोलेजीवोंके विधिमार्गसे श्रीजिनाज्ञा आराधनको शुद्ध श्रद्धारूपी सम्यक्त्व रत्नके धनको हरण करके अपने दृष्टिरागके फन्दमें फंसाकर अविधि मार्गरूपी मिथ्यात्वमें गेरनेवाले वेषविटम्बक चैत्य वासी जन व्याप्त हो गये थे तो फिर ऐसे अवसरमें शुद्ध क्रिया पात्र परमोपकारी शास्त्रतत्वज्ञ और अविधिरूपी अन्धकारको नाश करने में सूर्य समान प्रकाश करनेवाले तथा वेषधारियोंके पाषण्डको तोड़ने में समर्थ अनेक तरहके उपद्रवोंको सहन करनेवाले श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजके सिवाय दूसरा कौन वहां जाकरके भव्यजीवोंके उपकार निमित्तशास्त्रानुसार विधि मार्गकी बातोंको प्रगट करानेके लिये इतना परिश्रम कर सकता था जिसको तो तत्वग्राही विवेकी पाठक गणभी स्वयं विचार सकते हैंतथा भौर भी एक वर्तमामिक प्रत्यक्ष प्रमाण भी यहां पाठ
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