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जन्म दीक्षा और ज्ञानोत्पत्ति इन तीनों बातोंके होनेसे लोकमें उद्योत होनेका तथा देवताओंके आगमनका लिखा है, परन्तु यहां सूत्रकारने और टीकाकारने भी कल्याणक शब्दका तो कथन ही नहीं किया तो क्या न्यायां भोनिधिजी यहां भी तीर्थंकर भगवान् के जन्मादिकों को कल्याणक नहीं मानेगे सोतो कदापि नहीं, यदि मानते होंगे तब तो बड़े ही आश्चर्य सहित महान् खेदकी बात है कि, गच्छ कदाग्रह के झगड़े में पड़कर उत्सूत्र भाषणसे संसार वृद्धिके भयको भूल करके भोले जीवोंको मिथ्यात्व के भ्रममें गेरनेके लिये एकही सूत्र के तीसरे स्थानके पाठसे तीर्थंकर भगवान् के जन्मादिकोंको कल्याणक मानते हुए भी इसीही सूत्रके पंचम स्थानके मूल पाठसे १४ तीर्थंकर महाराजोंके च्यवन जन्म दीक्षादिकों को कल्याणक न मान्य करके विशेषतासे निषेध करनेका ऐसा प्रत्यक्ष अन्याय आत्मारामजीको अपने न्यायांभोनिधिके विशेषणको लज्जानेका कारण करना कदापि उचित नहीं था सो भी पाठकगण विचार लेना
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औरभी इसीही तरहसे श्रीजौवाभिगमजी सूत्रके मूल पाठ में तथा उसीकी वृत्ति में नन्दीश्वरद्वीपाधिकारे सूत्रकार मे तथा वृत्तिकारने मोतीर्थंकर भगवान्के जन्म दीक्षा ज्ञानोत्पत्ति और निर्वाण होनेसे सुर असुर देवोंका बहुत समुदाय मिलकर नन्दीश्वरद्वीपके शाश्वत चेत्यों में भगवान्की प्रतिमाजीके आगे अटाईउत्सव करनेका लिखा है परन्तु वहां भी कल्याणक शब्द नहीं लिखा तो भी अनादि व्यवहारसे भगवान् के जन्मादिकों का कल्याणक ही अर्थ किया जाता है और श्री आवश्यकजी सूत्रकी नियुक्ति में तथा उसीकी चूर्णि में और उसीकी वृहद्वतिनें तथा लघुवृत्ति में श्री चौबीसही तीर्थंकर
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