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श्रीमहावीरस्वामी के छठे कल्याणकका कालदोषसे द्रव्यलिंगी चैत्यवासियोंसे लुप्त हुआ जिसका तथा श्रीजिनबल्लभसूरिजी महाराजने प्रगट किया जिसके वर्षों का नियमित समयको तो श्रीज्ञानीजी महाराजके सिवाय दूसरा कोई कहने को समर्थ नहीं है और जैसे श्रीसिद्धसेनदिवाकर सूरिजी महाराजसे तथा श्री अभयदेवसूरिजी महाराज से भी विशेष गीतार्थ समर्थ पूर्वाचार्य पूर्वे हो गये परन्तु जिस समय जिसके योग्यसे जो बात बननेवाली होती है सो बात उसी समय उनकेही योग्यसे बनती है नतु दूसरे के योग्यसे दूसरे समयमें सो यह बात प्रसिद्ध है इसीकेही अनुसार श्रीएवन्ती पार्श्वनाथजी की प्रतिमाके तथा श्रीस्थम्भन पार्श्वनाथनीकी प्रतिमाके उन्हीं महाराजोंकी भक्तिपूर्वक स्तवना से प्रगट होकर शासन प्रभावना और भव्यजीवोंको उपकार होनेका कारण होनेवाला था सोही हुआ ॥ तैसेही श्रीजिनबल्लभ सूरिजीसे भी विशेष गीतार्थ समर्थ पुरुष पूर्वे हो गये परन्तु विशेष रूप से चैत्यवासियोंका अविधि मार्ग और दृष्टिरागके पक्षपातकी भ्रमजालको तोड़कर सिद्धान्तानुसार विधिमार्गका प्रकाश श्रीजिनवल्लभ सूरिजी से ही होनेवालाथा इसलिए इन महाराजने उसीसमय चैत्यवासियोंके अनेक उपद्रवोंको भी सहन करके - विधिचैत्य ९, विधिसे उसीका पूजन २, यत्मापूर्वक विधिसे उसीकी संभाल ३, चैत्यवास त्यागरूपोपदेश ४, निशिचैत्यप्रतिष्ठा निषेध ५, तथा निशि स्नात्र पूजनादि निषेध ६, सूतिकागृहे मुनि भिक्षा निषेध 9, निर्वद्य ४२ दोषरहित मुनि गौचरीका व्हवहार ८, षष्ठ कल्याणकाराधन व्यवहार ९ अप्रतिबद्ध मुनि विहार १०, द्रव्यसे गुरु अङ्ग पूजन निषेध - १९ चैत्य निर्माल्य भक्षण निषेध १२, निजद्रव्य तथा
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