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भवन्त्रहणादिदंषष्ठ तदप्ये तस्मात् षष्ठमेवेति सुष्टुच्यते ती थंकर भवग्रहणात्वष्ठे पोटिल भवग्रहण - इति ॥
उपरके पाठका भावार्थ कहते है कि- श्रमण भगवान् श्री महावीर स्वामी के पूर्वभवों की गिनती करने में तीर्थंकरत्वपने के पहिले निश्चय करके भगवान् छठे भवमें महाविदेह क्षेत्र मुका नगरी में चौराशी लाख पूर्वके आयुष्ये पोटिल नामा राजपुत्र हुए वहां चक्रवर्तीपनेको ऋद्धिको छोड़ करके एक कोड़ वर्ष पर्यन्त समान्यपने दीक्षा पर्यायको पालन करी सो प्रथम भव । वहांसे सहसार नामा आठवें देवलोकके सर्वार्थ सिद्ध नामा विमानमें देवतापने उत्पन्न हुए सो दूसरा भव । और वहांसे इसी भरतक्षत्रको छत्रानगरी में नन्दनामा राजपुत्र हुए सो तीसरा भव ॥ और वहां २४ लाख वर्ष तक गृहस्थावास में राज्यका पालण करके पीछे दीक्षा लेकरके एक लाख वर्षतक निरन्तर मास मास क्षमणकी तपस्यासे श्रीवीश स्थानकजीका आराधन किया सो ११८०६४५, अथवा मतान्ततरे ११८०५००, मास क्षमण करके दशवे देवलोक के पुष्पोत्तर नामा विमान में देवता हुए सो चौथाभव ॥ और वहांसे देवत्वपनेका आयुष्य पूर्ण करके ऋषभदत्त ब्राह्मणकी देवानंदा नामा ब्राह्मणीके उदर में आकर ऊत्पन्न हुए सो पञ्चमभव । और वहांसे ८२ वेंदिन इन्द्रकी आज्ञानुसार हरिणेगमेषी देवने सिद्धार्थ राजाकी त्रिशलाराणीके उदर में स्थापित किये और तीर्थंकरपने प्रगट हुए सो छठाभव ।
और देवानन्दा माता के उदरसे त्रिशला माता के उदर में भगवान्का पधारना हुआ सो उपर में भगवान्का छठा भव कहा है उसीको छठेभवमें गिनती किये बिना तो निश्चय करके भगवान्का दूसरा कोई अन्य छठा भवग्रहण करनेका तो किसी भी शास्त्र में सुनने में नहीं आया इसलिये वोही (त्रिशला माताके
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