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। ५४७ ] हो सकता है तथा किसी भी पूर्वाचार्यने ऐसा अनर्थ किसी भी प्राचीन शास्त्र में किसी जगहपर भी नहीं लिखा है तो फिर विनयविजयजी वगैरह आधुनिक कदाग्रही लोगोंने सूत्रकार महाराजके विरुद्धार्थमें सूत्रपाठके अर्थ का भङ्गरूप उत्सूत्रभाषणके झगड़ेको स्था क्यों स्वीकार करके अपनी आत्माको संसारगामी करनेका कारण किया होगा तथा वर्तमानमें क्यों करते हैं जिसको तो तत्त्वज्ञ पाठक जन स्वयं विचार लेवेंगे,
और ऊपर में तीनों तीर्थ कर महाराजोंके पांच पांच कल्याणाको सम्बन्धी सूत्रके पाठोंको टीकाओं के पाठोंमें भवनस्प क्रिया एक समान होते भी महावीर स्वामीके पांच कल्याणक हस्तोत्तर नक्षत्र में कहने के बदले च्यारही कल्याणक कहकर उसीके अन्तरगत साथके गर्भापहारको कल्याणकत्वपमेसे निकालकर अकल्याणक कहते हुए श्रीसिद्धहेमके तथा पाणिनिय व्याकरणके और महाभाष्यके नियमका भङ्ग करते विनयविजयजीको तथा वर्तमानिक विद्वान् नाम धरानेवालोंको तत्त्वज्ञार्थ ज्ञाताओंके आगे अपमे विद्वत्ताकी हासी करानेकी कुछ भी लज्जा नहीं आई क्योंकि “सन्नियोग मिष्टानां सहैव प्रवृत्तिः सहैव निवृत्तिः ॥ तथा ॥ एक योग निर्दिष्टानां सहवा प्रवृत्तिः सहवा निवृत्तिः" इस वचनानुसार 'पञ्चहत्थु त्तरे होत्थति" इस पाठकी व्याख्यामें अपनी कल्पना मुजब गर्भापहारको कल्याणकत्वपसे निषेध करोगे तो च्यवन जन्म दीक्षादिको भी कल्याणकत्वपनेका निषेधको आपत्ती आजावेगा और च्यवन जन्मादिकोंको कल्याणक मानोगे तो उसीके भी साथ अन्तरगत गर्भापहार भी होनेसे उसीको तो स्वयंही
कल्याणकत्वपमा प्राप्त हो जावेगा इसलिये व्याकरणके भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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