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अन्धपरम्परा वाले वांचकर खण्डन मरहनकर के श्री वीरप्रभुकी मिन्दापूर्वक उत्सूत्रभाषणोंसे कुयुक्तियोंकी भ्रमजालमें भोले जी - वोंको फसाकर उन्होंके सम्यक्त्व रत्नको हानी पहुंचाते हुए दुबोधिका और संसार वृद्धिका कारण रूपी महान् अनर्थ करते हैं सो तो अपने अपने कर्त्तव्यानुसार उसीके त्रिपाक भर्वातर में भोगेंगे परन्तु इस बातके मूल कारण भूत चैत्यवासी और गच्छकदाग्रही लोग पूर्वे हुए उन्होंकी अन्धपरम्परासे धर्मसागरजी वगैरहोंने कल्पकिरणावली वगैरहों में निज परके आत्मघाती तथा मिथ्यात्व बढ़ाने वाला उपरकी बात सम्बन्धी खूबही परिश्रम किया और मिथ्यात्व के सार्थवाहीबने उसीके अनुसार विनयविजयजीमेभी जो इतना अनर्थ किया है उसीके विपाक तो भवांतर में अवश्यमेव भोगेबिना कदापि नहीं छुटेंगे
अब इस जगह विनयविजयजीकी बाललीलाका नमूना पाठकवर्गको दिखाकर इनके लेखको समीक्षा समाप्त करूंगा सो यहां उनकी बाललीलाका नमूना, देखो - श्री कल्पसूत्र के मूल पाठकी व्याख्या में खास आपने ही “भगवान् आषाढ़ सुदी ६ को देवानन्दा माताके उदर में ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए सो नीच गोत्रके विपाकसे आश्चर्यरूप हैं" ऐसा लिखा फिर इसोको ही च्यवन वस्तु कहके च्यवन कल्याणक भी आपने माना और ब्राह्मण कुल में भगवान्का जन्म न होनेके लिये गर्भापहारसे निजपरके कल्याण के लिये भगवान्को इन्द्रने उत्तम कुलमें पधराए इस तरहसे खुलासा किया । अब यहां पक्षपात छोड़ करके विवेक बुद्धिसे पाठकवर्गको विचार करना चाहिये कि जब भगवान्के ब्राह्मण कुलमें उत्पन्न होनेको नीच गोत्रका विपाक तथा आश्चर्य कहके उसीको च्यवन वस्तु अर्थात् च्यवन कल्याणक माना तो फिर नीच गोत्रत्वपना
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