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है सो सब वृथा हो जावे क्योंकि जब आप लोगोंकी बुद्धि मुमब उसीको कल्याणक ही नहीं मानना था तो फिर इतनी विस्तारसे उपरकी बातों सम्बन्धी व्याख्या करनेका शास्त्र. कारोंने कथा क्यों परिश्रम किया और जो शास्त्रकारों ने उसीको कल्याणक मान्य करके ही उपरकी बातोंकी व्याख्याकरी है तब तो असङ्गति के बहाने विनयविजयजीका तथा वर्तमानिक गच्छ ममत्वि लोगोंका निषेध करना सो शास्त्रकार महाराजोंके विरुद्धार्थ में बथाही हठवादका कारण है सो विवेकी सज्जनोंको तो करना उचित नहीं है
और अब तीसरा यह है कि-श्रीकल्पसूत्रके “पञ्चहत्थुत्तरे" के पाठको विनयविजयजीने असङ्गति निवारणके बहाने गर्भापहारको कल्याणकत्वपनेसे निषेध किया, तो क्या श्रीआचारांगजी श्रीस्थानांगजी वगैरह शास्त्रोंमें श्रीवीरप्रभुके कल्याणकाधिकारे 'पञ्चहत्थत्तरे' पाठ है वहां भी सब जगह असङ्गति निवारणके बहाने गर्भापहारको कल्याणकत्वपमेसे विनयविजयजी निषेध करसकेगें सो तो कदापि नहीं हो सकता क्योंकि वहां तो श्रीस्थानांगजी सूत्रके पञ्चम स्थानमें श्रीगणधर महाराजने श्रीपद्मप्रभुजी आदि १४ तीर्थंकर महाराजोके नाम पूर्वक पांच पांच कल्याणकोंके नक्षत्र गिनाये हैं जिसमें श्रीपद्म प्रभुजी आदि १३ तीर्थकर महाराजोंका तो-पहिला च्यवन, दूसरा जन्म, तीसरा दीक्षा, चौथा केवल ज्ञान उत्पत्ति, और पांचवा मोक्ष, इस तरहसे सब तीर्थंकर महाराजोके पांच पांच कल्याणक दिखाये और श्रीवीरप्रभुके कल्याणकाधिकारे तो पहिला च्यवन, तथा दूसरा गर्भापहारसे गर्भ संक्रमणरूप दूसरा यवन, तीसरा जन्म, चौथा दीक्षा, और पांचवा केवल जानकी उत्पत्ति, यह पांच कल्याणक खुलासा पूर्वक दिलाये है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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