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सास विनयविजय मोने ही वस्तु तथा स्थान शब्दका कल्या. णक अर्थ अपने दिलमै मंजूर करलिया तबही तो अपने मंतव्य में विरोधके भयो उसीके निषेधकी चर्चाम “पंच हत्थुसरे, इत्यत्र पंच वस्तून्येव व्याख्यातानि नतु कल्याणकानि इस तरह के अक्षर लिखके गच्छ कदाग्रहकी मायाचारीसे उत्सन भाषण करके भोले जीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें गेरनेका उद्यम करते ससार वृद्धिका कुछभी अपने हृदयमें भय न किया सो बड़ा ही आश्चर्य सहित अफसोस है
और अब फिर भी सत्यग्राही पाठक वर्गसे मेरा यहो कहना है कि-वस्तु शब्दका तथा स्थान शब्दकामी संबन्ध मैं कल्याणक अर्थ खुलासा पूर्वक सिद्ध होता है इसलिये इसमें कोई तरहका सन्देह नहीं करना क्योंकि देखो वस्तु शब्दका (उत्तममें मध्यममें अधममें इष्ट, अनीष्टमें धर्मम अध ममें लोकमें अलोकमें और जीव अजीवादि) सब पदाथों में तथा सर्वलिङ्गों में और सर्व अर्थों में व्यवहार किया जाता है इसलिये जैसे-ज्ञान दर्शन चारिता वस्तु, धर्म वस्तु, साश्वत चैत्य प्रतिमा वस्तु, और मोक्ष देवलोक आदि सबको वस्तु शब्दसे व्यवहार करते हैं तैसे ही मंगलिकके लिये श्रीतीर्थंकर महाराजके चरित्रका वर्णन करते श्रीवीरप्रभुके च्यवन गर्भापहार जन्मादिकों कोभी वस्तु शब्दसे व्यवहार करके श्रीदशातस्कन्धकी चूर्णि वगैरह शास्त्रों में व्याख्या करी सोही च्यवन गर्मापहार जन्मादिकोंको कल्याणक समझने चाहिये क्योंकि यद्यपि वस्तु शब्दका अर्थ सम्बन्धपूर्वक प्रसंगसे किया जाता है सो यहां च्यवनादि कल्याणकोंका सम्बन्ध होनेसे ..श्रीवीरप्रभुके चरित्रकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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