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होगा परन्तु वर्तमानिक तपगच्छके विद्वानों को भगवान के ध्यवनादिकोंको वस्तुकहके कल्याणकत्वपनेसे निषेध करते अपनी आत्मविराधनाका कभी भय क्यों नहीं आता है क्योंकि च्यवनादिकोंको ही शास्त्र कारोंने कल्याणककहे हैं तथा च्यवनादिकोकों ही वस्तु भी कही है और वस्तु शब्द कल्याणकका अर्थवाला है जिसका निर्णयतो उपरमही लिखा गया है इसलिये वस्तु कहके कल्याणकका निषेध करना सो अधपरंपराके हठवादका आग्रहसे अपने तथा दूसरे भोले जीवोंके सम्यक्त्यरत्नको हाणी पहुंचानेवाला उत्सव भाषण करना आत्मार्थियों को उचित नहीं है
और आत्मा अध्यजीवोंके उपकारके लिये श्री.तीर्थं कर महाराजका चरित्र वर्णन करते च्यवनादिकोंको वस्तु कहके कल्याणकत्वपनेसे निषेध करनेवाले च्यवनादिकों के बिना अन्य कल्याणक किसको बतलाते होवेंगे क्योंकि च्य. धनादिक वस्तु सोही कल्याणकों के सिवाय अन्य कल्याणक तो किसी भी शास्त्रमें देखने में नहीं आते हैं तथा सुनने में भी नहीं आये हैं और च्यवनादिकों के बिना दूसरे कल्याणक होभी नहीं सकते हैं इसलिये जो च्यवनादिकों को ही कल्याणक कहने तथा उन्हीं च्यवनादिकोंको वस्तु भी कहना
और फिर च्यवनादिकों को वस्तु कहके कल्याणकत्वपनेसे निषेध भी करनेका परिश्रम करना सो यह तो बाल ली. लावत् युक्ति विरुद्ध होतेभी इसका हठ नहीं छोड़नेवालोंकों दीर्घसंसारी अन्तर मिथ्यात्वी कहने में कोई हाणी होती होवे तो विवेकी तत्वज्ञोंको अच्छीतहरसे विचार करना चाहिये
और इसी तरहसे पांच स्थान शब्दकाभी पांच
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