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[ ५० ] आदिमें च्यवनादिकों को वस्तु कही वही च्यवनादिकों को कल्याणकही माने गये क्योंकि वस्तु शब्द पर्यायवाची गुण युक्त भावनावाला होता है और श्रीवीरप्रभुके च्यवनादि छहों वस्तुओं में पर्यायवाचीत्व तथा गुण युक्त पनेसे और भावनासे भी छहों कल्याणकोंका अर्थके सिवाय दूसरा कोई भी अर्थको सङ्गति कदापि नहीं हो सकती है इसलिये यहां च्यवनादिक कल्याणक शब्दके च्यवनादिक वस्तु शब्द पर्यायवाची एकार्थ सचक सिद्ध होगया सो विवेकी तत्वज्ञ पाठकगण वयं विचार लेवेंगे।
और 'वत्थु सहावो धम्मो' याने 'वस्तु स्वभावो धर्मः'। इस शब्दके न्यायानुसारभी जैसे च्यवनादि वस्तुओंमें श्रीतीर्थंकर महाराजकी माताके चौदह स्वप्न देखने वगैरहका तथा छपन्न दिककुमारी चौसठ इन्द्रों के जन्ममहोत्सव करने वगैरहका नियमीत अनादि मर्यादा रूप धर्म हैं तैसेही च्यवनादि वस्तुओंमें कल्याणकत्वपनेकाही अनादिधर्म होनेसे च्यवमादि वस्तुओं का च्यवनादि कल्याणकही अर्थसिद्धहोता है इसमें कोई बाधानहींहोसकती है इसबातकोसी निष्पक्षपाती विवेकी तत्वज्ञ पाठकजन अपनीबुद्धिसे विचार डेना,
देखिये बड़ेही आश्चर्यकी बात है कि-शासन नायक परमसपकारी श्रीवर्द्धमान स्वामीका चरित्र वर्णन करते भग. वान्के च्यवनादिकोंको वस्तु कहके कल्याणकका अभाव दिखानेवाले विनयविजयजीको तो अपने गच्छकदाग्रहके हठवादकी कल्पित बातको जमाने के लिये शास्त्रकारों के विरुद्धार्थ में उलटा अर्थ करके बालजीवोंको दिखाते उत्सू. प्रभाषणसे मात्मविराधनाका कुछ भी विचार नहीं आयाShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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