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फंसाने के लिये उठाई करने में कुछ कमती नहीं करते हैं तैसे ही 'पंचहत्युत्तरे साइणा परि निधुडे' इस पदका गणधरमहाराजके विरुद्धार्थमें विनय विजयजीने अपनीमति कल्पना प्रत्यक्ष असंगत पांचका अर्थकरके बालजीवोंको अपने कदाग्रहको भ्रम जाल में फंसाने के लिये खूबही उलंठाइकरी है तथा वर्तमानिक तपगच्छवाले विद्वान् नाम धराते भी ऐसी उलंठा इसे प्रत्यक्ष असंगत अर्थकरते कुछ लज्जाभी नही पाते हैं यहभी पाखंडपूजा नामक अच्छेरेका कलयुगी प्रभाव ही मालूम होता है क्योंकि विवेकी विद्वान् तो उपरके शब्द से पांचका अर्थ कदापि नही करेंगे और न कोई मान्य करे परंतु अंध परंपराका हठवादको तो अलौकिक आश्चर्य कारक महिमा जुदीही होती है इसमें कोई विशेषता नही है,
और बड़ेही खेद की बात है कि उपरके शब्द में (पाँच हस्तोत्तरायें तथा छठा स्वातिमें यह छहीं कल्याणकोंका प्रगटपने खुलासा अर्थ होते भी विद्वताके अभिमान से अपनी कल्पनामुजब पांचका अर्थ करके भोले लोगोंमें दिखानेवाल विनयविजयजीको तथा वर्तमानिक तपगच्छके विद्वानोंको इतने वर्षों में कोई भी समझाने वाला नहीं मिला या तपगच्छके उन्होंकी समुदाय में कोईभी विवेकी, तत्त्वज्ञ, आत्मार्थी, इस अनर्थको हठाने वाला बुद्धिमान नहीं हुआ जिससे वर्तमान में हरबर्षे गांवगांवमें इतना अनर्थ कारक अंध परंपरा के मिथ्यात्वको पुष्ट करते परभववका 'किंचित् मात्र भी हृदयमें भय कोईभी नहीं बाते हैं, क्या बड़ी आश्चर्य की बात है कि श्रीकल्पसूत्र की पूर्व चार्यों ने अनेक टीकाओं बनाई है उसीमें उपर के पदको भी व्याख्या
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