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रोया है, गिड़गिड़ाया है। वह पहचानता है।
वह भी कभी खेल-खिलौनों से खेला है। कभी गुडियाएं टूट गयी हैं, कभी विवाह रचाते - रचाते नहीं रच पाया है तो बड़े दुख हुए हैं। कभी बना-बना कर तैयार किया था ताश का महल, हवा का झोंका आया है और गिरा गया है, तो बच्चे की आंखों से झर-झर आंसू झरे हैं, ऐसे आंसू उसको भी झरे थे। वह जानता वह पहचानता है। वह भलीभांति तुम्हारे दुख में सहानुभूति रखता है। लेकिन फिर भी हंसी तो उसे आती है, क्योंकि बात तो झूठी है। है तो सपना ही। भला तुम्हारे सामने हंसे न; सौजन्यतावश, सज्जनतावश तुम्हें थपथपाये भी तुमसे कहे भी कि बड़ा बुरा हुआ होना नहीं था - लेकिन भीतर हंसता है।
जैसे कि तुम छोटे बच्चे को समझाते हो कि घबड़ा मत, टांग भला टूट गयी, गुड़िया की आत्मा अमर है, घबड़ा मत! गुड़िया परमात्मा के घर चली गयी, देख प्रभु की गोद में बैठी है, कैसा मजा कर रही है!' तुम समझाते हो। तुम कहते हो दूसरी गुड़िया ले आयेंगे। घबड़ा मत। रो मत। चीखपुकार मत मचा। कुछ भी नहीं बिगड़ा है। सब ठीक हो जायेगा।' समझाते हो । थपथपाते हो। फिर भी भीतर
तुम जानते हो, एक खेल तुम्हें भी खेलना पड रहा है।
जब बुद्धपुरुष तुम्हारे दुख में तुम्हें सहानुभूति दिखलाते हैं तो एक नाटक है एक अभिनय है- सौजन्यतावश । तुम्हें बुरा न लगे। तुम्हें पीड़ा न हो। लेकिन साथ-साथ चेष्टा करते रहते हैं कि तुम भी जागो। क्योंकि असली घटना तो तभी घटेगी दुख के बाहर होने की, जब तुम जानोगे कि सब दुख-सुख छाया हैं, माया हैं।
चौथा प्रश्न :
मुझे लगता है कि जैसे-जैसे सजगता बढ़ती है वैसे-वैसे संवेदनशीलता भी बढ़ती है, जिसे मैं बिलकुल भी सह नहीं पाती हूं। कृपाकर मार्गदर्शन करें।
नयनहीन को राह दिखा प्रभु,
चलत-चलत गिर जाऊं मैं !
निश्चित ही जैसे-जैसे सजगता बढ़ेगी, संवेदनशीलता भी बढ़ेगी। साधारणतः तो हम एक
तरह की धुंध में रहते हैं- बेहोश, मूर्च्छित। जैसे एक आदमी शराब पीए पड़ा है नाली में, तो उसे ना की बदबू थोड़े ही आती है। तुम्हें लगता है कि नाली में पड़ा है बेचारा । मगर वे तो बड़े मजे से पड़े हैं। हो सकता है कि सपना देख रहे हों, महल में विश्राम कर रहे हैं। कि राष्ट्रपति हो गए हैं, दरबार लगाए बैठे हों!