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पश्चिम के लोग आते हैं; उनमें मुझे एक तरह की सरलता और साफ-सुथरापन दिखायी पड़ता है। दो और दो चार ! जब भारतीय कोई आता है, उसके भीतर गौर से देखो तो कभी दो और दो पांच होते दिखायी पड़ते हैं और कभी दो और दो तीन होते दिखायी पड़ते हैं। दो और दो चार कभी नहीं होते। कुछ अड़चन है। उसने महासत्य भी सुन लिए हैं। खुद तो नहीं जाना - सुन लिए हैं। महासत्यों की उदघोषणा इतनी बार हुई इस देश में कभी बुद्ध, कभी महावीर, कभी कृष्ण, कभी अष्टावक्र- उसने सुन लिए हैं। उनको इंकार भी नहीं कर सकता। भारत की चेतना ने इन महापुरुषों को देखा। सदियों सदियों में वे आते रहे। उनको इंकार भी नहीं किया जा सकता। उनकी मौजूदगी प्रगाढ़ छाप छोड़ गयी। उनकी वाणी गूंजती है, गूंजती चली जाती है। वह हमारे खून में मिल गयी है। हम भुलाना भी चाहें तो भूल नहीं सकते। और हमारा अहंकार भी है; उसको भी हम झुठलाना नहीं चाहते। हम अपने अहंकार की मान कर भी चले जाते हैं। ऐसी दुविधा है। इस दुविधा में बड़ी टूट हो जाती है; आदमी खंड -खंड हो जाता खै ।
पूरब का आदमी मुझे ज्यादा चालबाज मालूम पड़ता है बजाय पश्चिम के आदमी के । पश्चिम का आदमी एक बात पर तय है कि उगदमी कर्ता है। पूरब का आदमी दो बातो में डोल रहा है। उसकी नाव दो तरफ एक साथ जा रही है। उसने अपनी बैलगाड़ी में दोनों तरफ बैल जोत लिए हैं। हड्डी -पसली टूटी जा रही है, अस्थि-पंजर उखड़े जा रहे हैं। और बड़ी बेईमानी पैदा हुई है। कैसी बेईमानी पैदा हुई है ? पूरब का आदमी जीतता है तो कहता है, मैं जीता; हारता है तो वह कहता है, भाग्य में लिखा था। यह बेईमानी पैदा हुई है। जब हार तो वह एक तरफ की बात कहता है कि भाग्य में लिखा, क्या कर सकते हो ! होना नहीं था।' जब जीत होती है तब भूल जाता है यह। तब वह कहता है, मैं जीता।
'देहासक्त योगी हैं जो कर्म और निष्कर्म के बंधन से संयुक्त भाव वाले हैं। मैं देह के संयोग और वियोग से सर्वथा पृथक होने के कारण सुखपूर्वक स्थित हूं।'
सुनो! जनक कहते हैं, देहासक्त हैं योगी! भोगी तो देहासक्त हैं ही, योगी भी देहासक्त हैं। उनकी आसक्तिया अलग- अलग ढंग की हैं, लेकिन हैं तो आसक्तिया । भोगी फिक्र करता है कि खूब सजा ले अपने जीवन को । भोगी फिक्र करता है देह के लिए सब सुख-साधन जुटा ले, शैया बना ले मखमल की। और त्यागी फिक्र करता है कि आसन जमा कर बैठ जाए सिद्धासन सीख ले, योगासन सीख ले, हठयोग लगा ले, श्वास पर काबू पा ले। मगर चेष्टा दोनों की शरीर पर ही लागू है। होगी योगी की चेष्टा शायद भोगी से बेहतर, लेकिन भिन्न नहीं। तल एक ही है, आयाम एक ही है।
कर्मनैष्कर्म्यनिर्बधभावा देहस्थ योगिनः
सयोगायोगविरहादहमासे यथासुखम् ।।
योगी भी देहासक्त हैं- जो कर्म और निष्कर्म के बंधन से जुड़े हुए हैं जो सोचते हैं, न करूं। योगी का अर्थ होता है: जिसने करना छोड़ दिया। भोगी का अर्थ होता है: जो करने में उलझा है। लेकिन दोनों ही, कर्म और अकर्म, एक ही ऊर्जा की भिन्न-भिन्न अभिव्यक्तियां हैं। तो जनक कहते हैं कि मैं देह के संयोग और वियोग से सर्वथा पृथक होने के कारण सुखपूर्वक स्थित हूं।