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भिन्न-भिन्न है।
सत्य का खोजी 'तू को गिरा देता है। इसलिए तो महावीर और बुद्ध परमात्मा को स्वीकार नहीं करते। परमात्मा यानी तू परमात्मा यानी पर। परमात्मा यानी जिसके चरणों में पूजा करनी है, अर्चना करनी है, जिसके सामने नैवेदय चढ़ाना है। परमात्मा यानी पर। इसलिए बुद्ध और महावीर परमात्मा को इंकार कर देते हैं। पतंजलि भी बड़े संकोच से स्वीकार करते हैं। और स्वीकार ऐसे ढंग से करते हैं कि वह इंकार ही है। पतंजलि कहते हैं, ईश्वर प्रणिधान भी सत्य को पाने का एक उपाय, एक विधि हैआवश्यक नहीं है, अनिवार्य नहीं है। ईश्वर है या नहीं, यह बात विचारणीय नहीं है। यह भी एक विधि है। मान लो, काम करती है। मानी हुई बात है।
समस्त ज्ञानी ईश्वर को किसी न किसी तरह इंकार करेंगे। शंकर कहते हैं, ईश्वर भी माया का हिस्सा है। अहं ब्रह्मास्मि! मेरा जो आत्यंतिक रूप है, वह ब्रह्म-स्वरूप है। लेकिन वह जो ईश्वर है मंदिर में विराजमान, वह तो माया का ही रूप है, वह तो संसार ही है। संसार यानी पर, दूसरा। स्वयं से बाहर गए कि संसार। फिर चाहे मंदिर ही क्यों न जाओ या दूकान जाओ या बाजार जाओ, कोई फर्क नहीं पड़ता-स्वयं से बाहर गए तो संसार में गए। मंदिर भी उसी संसार का हिस्सा है जहां दूकान है। मंदिर और दूकान बहुत अलग- अलग नहीं है,।
सत्य का खोजी कहता है, पर को भूलो। पर के कारण ही तरंग उठती है। कोई भाग। जा रहा है स्त्री को पाने, कोई भागा जा रहा है धन को पाने, कोई भागा जा रहा है प्रभु को पाने। सत्य का खोजी कहता है, भाग-दौड़ छोड़ो। जिसे पाना है, वह तुम्हारे भीतर बैठा है।
अष्टावक्र का मार्ग भी सत्य का मार्ग है। इसलिए साक्षी पर जोर है। साक्षी हो जाओ। ऐसे गहन रूप से साक्षी हो जाओ कि तुम्हारे साक्षीत्व की अग्नि में 'पर' जल जाए, समाप्त हो जाए, राख रह जाए 'पर' की-बचे 'मैं। तभी तो नमस्कार कर सकोगे स्वयं को। जहां कोई नहीं बचा, अब किसको नमस्कार करें? अब किसके चरणों में सिर झुकाएं? स्वयं ही बचा तो स्वयं को ही नमस्कार।
प्रेम का खोजी ठीक विपरीत दिशा से चलता है। वह कहता है, स्वयं को मिटाना है। सब कुछ समर्पित कर देना है परमात्मा को। तू ही बचे। तू ही तू बचे मैं न बचूं। मैं गल जाऊं, पिघल जाऊं खो जाऊं, तुझमें लीन हो जाऊं। तू ही बचे
इसलिए इस्लाम-इस्लाम प्रेम की खोज है-मंसूर को बर्दाश्त न कर सका। क्योंकि मैसूर ने कहा, अनलहक! मैं ही ब्रह्म हूं मैं ही सत्य हो इस्लाम बर्दाश्त न कर सका। इस्लाम है भक्ति-मार्ग। यह घोषणा भक्ति के विपरीत है। अगर तुम्ही हो ब्रह्म, तो फिर भक्ति कैसी, फिर भगवान कैसा? फिर न भक्ति है न भगवान है, न भजन है, स्मरण नहीं। किसका करोगे स्मरण? स्मरण तो 'पर' का ही होता है। सब स्मरण 'पर' का है। इस्लाम मैसूर को बर्दाश्त न कर सका। मंसूर भारत में पैदा होता तो हम उसकी गणना महर्षियों में करते। ब्रह्म ऋषियों में करते। अरब में पैदा हुआ फांसी लगी।
यहूदी भी जीसस को बर्दाश्त न कर सके। क्योंकि जीसस ने कहा कि मैं और मेरा पिता, जिसने मुझे बनाया, हम दोनों एक हैं। वह जो ऊपर है और नीचे है-एक है। यह घोषणा यहूदियों को पसंद