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सवत
जीवन के श्रम ताप स्वेद से बुसी कुचैली चादर का अब मोह निवारो। दलदल, जंगल, पर्वत मरुथल मारी-मारी फिरी शिथिल विकथित काया से जीर्ण-शीर्ण यह वसन उतारों। तारक सिकता फूलों में अविरत बहती शुभ्र गगन गंगाधारा में मल-दल नहला नव निर्मल कर जलन थकन हर अपने तन पर वत्सलता करुणा अनुरंजित सतरंगा परिधान संवारो। सतह पर अस्तित्व का उत्थान किरणावली समुज्ज्वल मोतियों की मुक्त कर बौछार कल-कल गान शत-शत लहरियों के संग उमगित अंग तट को प्रथम छूने के लिए प्रतियोगिता अभियान अब सब वह बिसारो। अब लहर नत शीश तिमिराच्छन्न अंतर सत्र अंग- अंग सर्वथा निस्संग निर्धन हर तरह से हार अपना रिक्त हस्त पसार अपने मूक नयनों से