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इसलिए मैं कहता हूं. संसार को जान ही लो, उघाड़ ही लो! जैसे कोई प्याज को छीलता चला जाए-तुम बीच में मत रुकना, छील ही डालना पूरा। हाथ में फिर कुछ भी नहीं लगता। ही, अगर पूरा न छीला तो प्याज बाकी रहती है। तब यह डर मन में बना रह सकता है, भय मन में बना रह सकता है. 'हो सकता है कोहिनूर छुपा ही हो!' तुम छील ही डालो। तुम सब छिलके उतार दो। जब शून्य हाथ में लगे, छिलके ही छिलके गिर जाएं-संसार प्याज जैसा है, छिलके ही छिलके हैं, भीतर कुछ भी नहीं। छिलके के भीतर छिलका है, भीतर कुछ भी नहीं। जब भीतर कुछ भी नहीं पकड़ में आ जाएगा, फिर तुम्हें रोकने को कुछ भी न बचा।
चार्वाक की किताब पूरी पढ़ ही लो, क्योंकि कुरान, गीता और बाइबिल उसी के बाद शुरू होते हैं। चार्वाक पूर्वार्ध है, अष्टावक्र उत्तरार्ध।
तो ठीक ही लगा। मेरी सारी चेष्टा यही है कि तुम्हें सुख से भगाऊं न तुम्हें सुख के वास्तविक स्वरूप का दर्शन करा दूं। तुम्हारे अनुभव से ही तुम्हें पता चल जाए कि जहां तुमने हीरे मोती समझे, वहा कंकर-पत्थर भी नहीं हैं।
लेकिन धर्मगुरु इस पक्ष में नहीं होंगे। शंकराचार्य और पोप और पुरोहित इस पक्ष में नहीं होंगे। क्योंकि उनका तो सारा का सारा धंधा इस बात पर खड़ा है कि वे तुम्हें भोग के विपरीत समझाएं। उनकी तो सारी दूकान तुम्हारे कच्चे होने पर चलती है। जो व्यक्ति संसार से पक कर बाहर निकलेगा वह किसी शंकराचार्य, किसी पोप के पास थोड़े ही जाने वाला है, वह तो सीधा परमात्मा के पास जा रहा है। अब उसके बीच में किसी एजेंट की कोई भी जरूरत नहीं है। संसार व्यर्थ हो गया, अब तो परमात्मा ही बचा, अब तो कहीं और जाना नहीं। वह हिंदू मुसलमान, ईसाई थोड़े ही बनेगा, वह तो सिर्फ धार्मिक होगा। उसका धर्म तो बिलकुल अनूठा होगा, विशेषण-शून्य होगा। लेकिन ये सारे धर्म-गुरु तो विशेषण से जीते हैं। ये तो चाहते हैं कि तुम्हारे भीतर परमात्मा की तरफ जाने की सीधी दौड़ न हो जाए शुरू, अन्यथा इनका क्या होगा! ये जो बीच में पड़ाव हैं, बीच में दूकानें हैं, ये जो बीच में ठहराव हैं, बीच में धर्मशालाएं हैं-इनका क्या होगा! नहीं, ये चाहते हैं कि तुम इन पर रुकते हुए जाओ। सच तो यही है, ये चाहते हैं, तुम इनसे पार कभी न जाओ, तुम यहीं रुके रहो।।
चार्वाक के विपरीत हैं तुम्हारे धर्मगुरु। क्योंकि एक बात पक्की है कि अगर चार्वाक का ठीक-ठीक अनुसरण किया जाए, तो तुम आज नहीं कल, कल नहीं परसों, जाग ही जाओगे। और जो जागता है वह परमात्मा में जागता है। हो, जो सोए-सोए उठ कर चलने लगते हैं, उनमें से कोई पुरी पहुंच जाता, कोई हज का यात्री होकर काबा पहुंच जाता है कोई जेरुसलम, कोई गिरनार, कोई काशी। ये जो नींद में सोये-सोये चल रहे लोग हैं, ये कहीं न कहीं जा कर उलझ जाते हैं।
इसलिए कोई धर्मगुरु, कोई धर्मपंथ मनुष्य को पूरी स्वतंत्रता नहीं देता-बांध कर रखता है। मनुष्य की स्वतंत्रता के पक्ष में बहुत थोड़े लोग हैं। स्वतंत्रता को इस तरह के लोग कहते हैं - उच्छंखलता। अष्टावक्र जैसी हिम्मत बहुत कम लोगों ने की है जो कहते हैं. स्वच्छंद हो जा, अपने भीतर के स्वभाव से जी, और कोई समझौता मत कर। इतना ही जान ले, इतना ही ज्ञान है कि तू