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लेते हो अनेक- अनेक रूपों में पहली बात। दूसरी बात. ये जो अनेक- अनेक रूप दिखाई पड़ रहे हैं, इन सबके भीतर भी एक ही व्याप्त है। ये अनेक रूप भी बस ऊपर-ऊपर अनेक हैं। जैसे सागर पर लहरें हैं, कितनी लहरें हैं, कितने-कितने ढंग की लहरें हैं-छोटी, बड़ी विराट, लेकिन सबके भीतर एक ही सागर तरंगित है! एक ही सागर लहराया है! ये सब एक ही सागर के चादर पर पड़ी हुई सलवटें हैं! इनमें जरा भी भेद नहीं है। इनके भीतर जो छिपा है, एक है। ये दोनों सूत्र इस एक सूत्र में छिपे हैं। दोनों अदभुत हैं!
तुम जरा-जरा रूप को पार करना सीखो, अरूप को खोजो। चेहरे को कम देखो; चेहरे के भीतर जो छिपा हुआ है, उसे जरा ज्यादा देखो। तन को जरा कम देखो, तन के भीतर जो छिपा है, उस पर जरा ज्यादा ध्यान दो। शब्द में जो सुनाई पड़ता है उसे जरा कम सुनो शब्द के भीतर जो शून्य का भिनसार है, वह जो वीणा शून्य की बज रही, उसे सुनो। ऐसे अगर तुम शांत होते गये. शांत हो ही जाओगे, क्योंकि अशांति है अनेक के कारण। अशांति अनेक की छाया है। जब एक दिखाई पड़ने लगता है तो अशांत होने की सुविधा नहीं रह जाती। एक ही है तो अशांति कैसी! और जब तुम्हीं हो सब तरफ झलकते, कोई दूसरा नहीं, तो भय किसका! जन्म भी तुम्ही हो, मृत्यु भी तुम्हीं। सुख भी तुम्हीं हो दुख भी तुम्हीं। फिर भय किसका! फिर सर्व-स्वीकार है। फिर उस सर्व-स्वीकार में ही शांति का फूल खिलता है-अपरिसीम फूल खिलता, अम्लान पारिजात! जो कभी नहीं छुआ गया, ऐसा कोरा कुंवारा फूल खिलता है। कहो सहस्रार, सहस्रदल कमल! लेकिन खिलता है एकत्व की घटना में-जब सब तरफ तुम्हें एक दिखाई पड़ने लगता है। पहले मैं और तू का भेद नहीं रह जाता, फिर बाहर रूप के भेद नहीं रूह जाते।
खयाल करना, अगर हम दो शून्य व्यक्तियों को एक कमरे में बिठा दें तो क्या वहां दो व्यक्ति होंगे या एक? वहां दो तो हो नहीं सकते। इतना तो तय है कि दो नहीं हो सकते। क्योंकि दो शून्य मिलने से दो नहीं बनते, दो शून्य मिलने से एक ही बनता है। एक भी हम कहते हैं, क्योंकि कहना पड़ता है। वस्तुत: एक भी वहां नहीं। इसलिए भारत में हम कहते हैं अद्वैत बनता है। दो नहीं बनते, एक की बात हम करते नहीं। क्योंकि एक के लिए भी तो सीमा चाहिए। तुम तीन शून्य ले आओ, चार शून्य ले आओ, सब खोते चले जाते हैं।
ऐसा हुआ बुद्ध के समय में अजातशत्रु सम्राट बना। उसके पिता तो बुद्ध के भक्त थे, लेकिन वह तो पिता को कारागृह में डाल कर सम्राट बना था। तो बुद्ध के विपरीत था। स्वभावत: एक तो बुद्ध के भक्त थे उसके पिता, फिर दूसरे उसने जो किया था वह इतना अधार्मिक कृत्य था कि बुद्ध के पास जाये तो कैसे जाये! बड़ी अपराध की भावना थी। फिर बुद्ध उसकी नगरी से गुजरे तो उसके आमात्यों ने, उसके मंत्रियों ने कहा : 'यह अशोभन होगा। यह उचित न होगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा। इसके बड़े परिणाम बुरे होंगे। आप दर्शन को चलें। आप एक ही बार दर्शन करके औपचारिक ही लौट आना। लेकिन बुद्ध गांव में आयें और सम्राट न जाये, प्रजा पर बुरा परिणाम होगा। पिता को कारागृह में डाल देने से जितनी आपकी बेइज्जती नहीं हुई उससे भी ज्यादा बड़ी बेइज्जती होगी। क्योंकि इस