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दिनों बाद मैं ठीक से सोया हूं और सपने नहीं आये।
फिर उस दिन के बाद वे दूकान नहीं गये। फिर दो-चार साल जीये, जब भी मैं घर जाता तो मैं पहली बात पूछता कि वे दूकान तो नहीं गये हैं। उनके बेटे भी परेशान हुए मेरे पिता, मेरे काका वे सब परेशान हुए कि मामला क्या है तुमने किया क्या! तो मैंने कहा : मै, कुछ किया नहीं हूं जो अपने से होना था, सिर्फ एक निमित्त बना। उनको याद दिला दी कि अब पैर भी टूट गये, अब क्यों आपाधापी! अब सब हार भी गये, बात खतम भी हो गई, अब प्राण जाने का क्षण आ गया, श्वास आखिरी आ गई, अब थोड़े साक्षी बन कर देख लो !
आखिरी दिन उनके परम शांति के दिन थे। मरते वक्त मैं घर पर नहीं था जब वे मरे, लेकिन दो दिन बाद जब मुझे खबर मिली और मैं पहुंचा तो सबने कहा कि वे तुम्हारी याद करते मरे । और उनसे पूछा कि क्यों उसकी याद कर रहे हो; और सब तो मौजूद हैं, उसी की क्यों याद कर रहे? तो उन्होंने कहा, उसकी याद करनी है, उसे धन्यवाद देना था ! उसने जो मुझे कहा कि अब कर्ता न रहो, मैं कृतकृत्य हो गया! धन्यवाद देना था। मैं तो न दे सकूंगा, लेकिन जब वह आये तो मेरी तरफ से धन्यवाद दे देना कि मैं साक्षी - भाव में मरा हूं और जीवन में जो नहीं मिला था वह मरने के इन क्षणों में मुझे मिल गया है। पृ
'हे चिन्मय, तू चित्त को संकल्पों और विकल्पों से क्षोभित मत कर। शांत होकर आनंदपूर्वक अपने स्वभाव में, अपने स्वरूप में स्थित हो । '
'सर्वत्र ही ध्यान को त्याग कर हृदय में कुछ भी धारण मत कर। तू आत्मा, मुक्त ही है, तू विमर्श करके क्या करेगा?'
ये सुनते हैं सूत्र
'सर्वत्र ही ध्यान को त्याग कर हृदय में कुछ भी मत धारण कर!'
धन पर ध्यान है, उसको भी त्याग दे ! प्रतिमा पर ध्यान है, उसको भी त्याग दे। वासना पर ध्यान है, उसको भी त्याग दे। स्वर्ग पर ध्यान है, उसको भी त्याग दे । कहीं ध्यान ही मत धर । हृदय को कोरा कर ले, सूना कर ले।
त्यजैव ध्यानं सर्वत्र मा किचिद्धृदि धारय
आत्मा त्वं मुक्त एवासि किं विमृश्य करिष्यसि
और सोच-विचार करने को क्या है? विमर्श करने को क्या है? तू एक, तू आत्मा, तू मुक्त छोड़ सोच-विचार, बस इतना ही कर ले कि ध्यान को सब जगह से खींच ले !
कृष्ण का सूत्र है गीता में. 'सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज! सब धर्म छोड़ कर तू मेरी शरण में आ जा!' यह मेरी शरण कृष्ण की शरण नहीं है। यह मेरी शरण तो तुम्हारे भीतर छिपे हुए परमात्मा की शरण है। वही कृष्ण हैं ।
वही इस सूत्र का अर्थ है : त्यजैव ध्यानं सर्वत्र !
'सर्वत्र ध्यान को त्याग कर दे और हृदय में कुछ भी मत धारण कर । '