Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 03
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 376
________________ सब जानना व्यर्थ है। वह एक क्या है? आपने कभी बात नहीं की ! तो गुरु कहा. उसकी बात की भी नहीं जा सकती। शब्द में उसे बांधा भी नहीं जा सकता। लेकिन अगर तू तय करके आया है कि उसे जानना है तो उपाय हैं। शब्द उपाय नहीं है। शास्त्र उपाय नहीं, सिद्धात उपाय नहीं। वह तो मैंने तुझे सब समझा दिया । तू सब जान भी गया। तू उतनाही जाता है जितना मैं जानता हूं। लेकिन अब तू जो बात उठा रहा है यह बात और ही तल की है, और ही आयाम की है। एक काम कर- जा गौओं को गिन ले आश्रम में कितनी गौएं हैं, इनको ले कर जंगल चला जा । दूर से दूर निकल जाना; जहां आदमी की छाया भी न पड़े, ऐसी जगह पहुंच जाना। आदमी की छाया न पड़े, ताकि समाज का कोई भी भाव न रहे। जब तुम अकेले होते जहां समाज छूट जाता है वहां अहंकार के छूटने में सुविधा मिलती है। हो तो अकड़ नहीं होती। तुम अपने बाथरूम में स्नान कर रहे हो तब तुम भोले भाले होते हो; कभी मुंह भी बचाते हो आईने के सामने छोटे बच्चे जैसे हो जाते हो। अगर तुम्हें पता चल जाए, कोई कुंजी के छेद से झांक रहा- तुम सजग हो गये, अहंकार वापिस आ गया! अकेले तुम जा रहे हो सुबह रास्ते पर, कोई भी नहीं, सन्नाटा है, तो अहंकार नहीं होता। अहंकार के होने के लिए 'तू का होना जरूरी है। 'मैं खड़ा नहीं होता बिना 'तू के। तो गुरु ने कहा. दूर निकल जाना जहां आदमी की छाया न पड़ती हो । गौओं के ही साथ रहना, गौओं से ही दोस्ती बना लेना। यही तुम्हारे मित्र, यही तुम्हारा परिवार । निश्चित ही गौएं अदभुत हैं। उनकी आंखों में झांका! ऐसी निर्विकार, ऐसी शांत! कभी संबंध बनाने की आकांक्षा हो श्वेतकेतु तो गौओं की आंखों में झांक लेना। और तब तक मत लौटना जब तक गौएं हजार न हो जाएं। बच्चे पैदा होंगे, बड़े होंगे। चार सौ गौएं थीं आश्रम में, उनको सबको ले कर श्वेतकेतु जंगल चला गया। अब हजार होने में तो वर्षों लगे। बैठा रहता वृक्षों के नीचे, झीलों के किनारे, गौएं चरती रहती सांझ विश्राम करता, उन्हीं के पास सो जाता। ऐसे दिन आए दिन गये रातें आईं, रातें गईं; चांद उगे, चांद ढले; सूरज निकला, सूरज गया। समय का धीरे- धीरे बोध भी न रहा, क्योंकि समय का बोध भी आदमी के साथ है। कैलेंडर तो रखने की कोई जरूरत नहीं जंगल में घड़ी भी रखने की कोई जरूरत नहीं। यह भी चिंता करने की जरूरत नहीं कि सुबह है कि सांझ है कि क्या है कि क्या नहीं है। और गौएं तो कुल साथी थीं, कुछ बात हो न सकती थी। गुरु ने कहा था, कभी-कभी उनकी आंख में झांक लेना तो झांकता था, उनकी आंखें तो कोरी थीं, शून्यवत ! धीरे- धीरे श्वेतकेतु शांत होता गया, शांत होता गया! कथा बड़ी मधुर है। कथा है कि वह इतना शांत हो गया कि भूल ही गया कि जब हजार हो जाएं तो वापिस लौटना है। जब गौएं हजार हो गईं तो गौओं ने कहा : 'श्वेतकेतु, अब क्या कर रहे हो? हम हजार हो गये। गुरु ने कहा था...। अब वापिस लौट चलो आश्रम । अब घर की तरफ चलें।' गौओं ने कहा, इसलिए वापिस लौटा। कथा बड़ी प्यारी है ! गौओं ने कहा होगा, ऐसा नहीं। लेकिन इतनी बात की सूचना देती है कि ऐसा चुप हो गया था, मौन कि अपनी तरफ से कोई शब्द न उठे; खयाल

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