________________
भी न उठा। अतीत जा चुका। मन के साथ ही गया अतीत- मन के साथ ही चला जाता है। इस मौन क्षण में एक जाना जाता है।
लौटा ! गुरु द्वार पर खड़े थे। देखते थे, गुरु ने अपने और शिष्यों से कहा: 'देखते हो! एक हजार एक गौएं लौट रही हैं।'
एक हजार एक! क्योंकि गुरु ने श्वेतकेतु को भी गौओं में गिना । वह तो गऊ हो गया। ऐसा शांत हो गया जैसे गाय । वह उन गऊओं के साथ वैसा ही चला आ रहा था जैसे और गायें चली आ रही थीं। गऊओं और उसके बीच इतना भी भेद नहीं था कि मैं मनुष्य हूं और तुम गाय हो ।
भेद गिर जाते हैं शब्द के साथ; अभेद उठता है निःशब्द में। जब वह आकर गुरु के सामने खड़ा हो गया और उसने कहा कि अब कुछ आज्ञा ? तो गुरु ने कहा. ' अब क्या त्र तू तो जान कर ही लौटा, अब क्या समझाना है ! तेरी मौजूदगी कह रही है कि तू जान कर ही लौटा है, अब तू अपने घर लौट जा सकता है। अब तेरे पिता प्रसन्न होंगे, तू ब्राह्मण हो गया है। '
तो आइंस्टीन को ब्राह्मण इस अर्थ में तो नहीं कह सकते; लेकिन आइंस्टीन ब्राह्मण होने के मार्ग पर था। बाहर को जान लिया था, भीतर को जानने की प्रगाढ़ जिज्ञासा उठी थी। लेकिन फिर भी मैं फिर से दोहरा दूं : तुम्हारे तथाकथित ब्राह्मणों से पुरी के शंकराचार्य से तो ज्यादा ब्राह्मण
थे।
तीसरा प्रश्न :
कृष्णमूर्ति बार-बार अपने श्रोताओं से कहते हैं न 'सुनो गंभीरतापूर्वक यह गंभीर बात है! लिसन सीरियसली; इट इज ए सीरियस मैटर ।' पर आप अपने संन्यासियों से ऐसा नहीं कहते : 'सुनो गंभीरतापुरर्वक; यह गंभीर बात है!"
पहली तो बात : या तो जो कुछ है सभी गंभीर है, या कुछ भी गंभीर नहीं। ऐसा विशेष रूप से कहना कि यह गंभीर बात है, भेद खड़ा करना होगा; जैसे कि कुछ बात गैर-गंभीर भी हो सकती है! सभी बात गंभीर है या तो, या कोई बात गंभीर नहीं।
बोध हो तो सभी बातें रहस्यपूर्ण हैं। वृक्ष से एक सूखे पत्ते का गिरना भी ! क्योंकि कभी ऐसा हुआ है, लाओत्सु जैसा कोई व्यक्ति वृक्ष से सूखे गिरते हुए पत्ते को देखकर ज्ञान को उपलब्ध हो गया है। तो गंभीर बात हो गई। बैठा था नीचे, वृक्ष से पत्ता गिरा, सूखा था, लटका था, जरा हवा का झोंका आया और गिरा। पता ऐसा नीचे गिरने लगा हवा में धीरे-धीरे और लाओत्सु भीतर गिर गया। उसने कहा, यहां तो सब आना-जाना है! आज हैं, कल चले जाएंगे ! अब यह पत्ता वृक्ष पर लगा