Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 03
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

View full book text
Previous | Next

Page 402
________________ तो अगर स्वयं की स्मृति लानी हो तो स्वयं को स्मरण करने का प्रयास भर मत करना, अन्यथा भटक हो जायेगी, भूल हो जायेगी, बड़ी भ्रांति होगी। तुम तो विस्मरण करना। डूब जाना कीर्तन में, कि नत्य में, कि गान में, कि संगीत में। तुम भूल ही जाना अपने को, बिलकुल भूल जाना, विस्मरण कर देना। यह भी भूल जाना, कौन हो तुम, क्या तुम्हारा पता-ठिकाना, जानते नहीं जानते, पंडितअपडित, पुण्यात्मा पापी-सब भूल जाना। ऐसे छंदबद्ध हो जाना किसी घड़ी में कि कुछ भी याद न रहे। सब पांडित्य भूल जाये, सब पुण्य एक तरफ रख देना जहां जूते उतार आये वहीं पुण्य भी, वहीं पांडित्य भी, वहीं छोड़ आना सारी अस्मिता और अहंकार को और डूब जाना। अचानक तुम पाओगे, उसी डुबकी में से कोई चीज उभरने लगी। तुम्हारे भीतर एक नया प्रकाश आने लगा। बादल छंट गये, सूरज दिखाई पड़ने लगा। आत्मस्मरण हुआ। विस्मरण की प्रक्रिया से होता है आत्मस्मरण। और शान की भी प्रक्रिया वही है। जो याद करने में लगे रहते हैं, वे भूल जाते हैं। जो जितनी ज्यादा याद करने की चेष्टा करते हैं उतनी ही भूल हो जाती है। जो भूल जाते, उन्हें याद आ जाता है। यह धर्म की आधारशिला है-यह विरोधाभासी जीवन की प्रक्रिया। इसलिए धर्म के सारे सूत्र पैराडाक्सिकल, विरोधाभासी हैं। और धर्म में तुम तर्क मत खोजना, नहीं तो चूक हो जायेगी। मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन सुबह सुबह अपने डाक्टर के घर गया, खांसता-खखारता भीतर प्रवेश किया। डाक्टर ने कहा : ' आज तो खांसी कुछ ठीक मालूम होती है। उसने कहा 'होगी क्यों नहीं, सात दिन से अभ्यास जो कर रहा हूं! ठीक मालूम क्यों न होगी? रात भर अभ्यास किया है।' तुम जो अभ्यास कर रहे हो, तुम्हारे अभ्यास से तुम्हीं तो मजबूत होओगे न रात भर अगर खांसी का अभ्यास किया है तो खांसी मजबूत हो गई। अगर तुमने आत्मस्मरण का अभ्यास किया तो तुम जिससे आत्मस्मरण का अर्थ लेते हो, वही तो मजबूत हो जायेगा। तुम्हारा तो अहंकार ही तुम समझते हो आत्मा है। तुम्हारा तो अज्ञान ही तुम समझते हो आत्मा है। वही और मजबूत हो कर बैठ गया। तो जितना तुम आत्मस्मरण का अभ्यास करने लगे, वस्तुत: उतना ही वास्तविक आत्मा का विस्मरण हो गया। तुम्हारा यह झूठा स्मरण हटे, यह झूठे का विस्मरण हो, तो सत्य का स्मरण हो जाये। झूठ हटे तो सत्य अपने से प्रगट हो जाये। सूरज तो मौजूद है, बादल हटने चाहिए। बादल हट गये कि सूरज प्रगट हो गया। सूरज को प्रगट थोड़े ही करना है, सूरज प्रगट ही है। अष्टावक्र कहते हैं कि ज्ञान तो मनुष्य का स्वभाव है, इसलिए शास्त्र में कहां खोजता है! शास्त्र से अगर सीख लेगा कुछ तो पर्ते बन जायेंगी स्मृति की और उन्हीं के नीचे वह तेरा जो स्वाभाविक था वह दब जायेगा। स्वभाव को प्रगट होने दे। बाहर से मत ला, भीतर से आने दे। ज्ञान, जिसको हम कहते हैं, वह तो बाहर से आता है। समझो कि मैं तुमसे कुछ कह रहा हूं या तुम अष्टावक्र की गीता ही पढ़ो, तो भी बाहर से कुछ आ रहा है। मैंने तुमसे कुछ कहा, बाहर से कुछ आया। इसे तुमने इकट्ठा कर लिया। यह तुम्हारा स्वभाव तो नहीं है। यह तो बाहर से आयो, विजातीय है। यह विजातीय अगर बहुत इकट्ठा हो गया तो तुम्हारे भीतर जो पड़ा झआ था उसके प्रगट

Loading...

Page Navigation
1 ... 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422