Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 03
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 400
________________ तुम इधर-उधर हो जाते हो। फिर जितना प्रबल विचार होता है उतने ही दूर निकल जाते हो । निर्विचार चित्त में ही कोई स्वस्थ होता है। इसलिए निर्विचार होना ही ध्यान है। निर्विचार होना ही समाधि है। निर्विचार होना ही मोक्ष की दशा है। क्योंकि स्वयं में बैठ गये, कहीं कोई जानाआना न रहा! अष्टावक्र कहते हैं. न आत्मा जाती, न आती; बस मन आता-जाता है। तुम अगर मन के साथ अपना संबंध जोड़ लेते हो तो तुम्हारे भीतर भी आने-जाने की भ्रांति पैदा हो जाती है। तुम तो वहीं बैठे हो जिस वृक्ष के नीचे बैठे थे। स्त्री नहीं गुजरी थी, परमहंस का दर्शन नहीं हुआ था - तब तुम जहां बैठे थे अब भी वहीं बैठे हो । शरीर वहीं बैठा है, आत्मा भी वहीं है जहां थी; लेकिन मन डावांडोल हो गया। और मन से अगर तुम्हारा लगाव है तो तुम चल पड़े। न चल कर भी चल पड़े। कहीं न गये और बड़ी यात्रा होने लगी । कोई अपने स्वभाव से कहीं गया नहीं है। हमने सिर्फ स्वप्न देखे हैं अशांत होने के, हम अशांत हुए नहीं हैं। अशांत हम हो नहीं सकते। शांति हमारा स्वभाव है। लेकिन अशांति के सपने हम देख सकते हैं। अशांत होने की धारणा हम बना सकते हैं। अशांत होने का पागलपन हम पैदा कर सकते हैं। फिर एक पागलपन के पीछे दूसरा पागलपन चला आता है। फिर कतार लग जाती है। 'अनेक शास्त्रों को अनेक प्रकार से तू कह अथवा सुन. ।' शास्त्र को कहने और सुनने से भी क्या होगा? नये-नये विचार, नई-नई तरंगें उठेगी। नये -नये भाव उठेंगे। उन नये-नये भावों को प्राप्त करने की आकांक्षा, अभीप्सा उठेगी। उन्हें पूरा करने की जिज्ञासा, मुमुक्षा होगी। नये स्वर्ग, नये मोक्ष की कल्पना सजग हो जाएगी। दौड पैदा होगी। और सत्य तो यहां है, वहां नहीं। इसलिए कहीं जाने की कोई बात नहीं है। तुम जब कहीं नहीं जाते, तभी तुम सत्य में होते हो। तो अष्टावक्र कहते हैं. 'लेकिन सबके विस्मरण के बिना शांति नहीं । ' तो स्मरण से शांति नहीं होगी, विस्मरण से होगी। जो जाना है, उसे भूलने से होगी । जानने से कोई नहीं जान पाता, मूलने से जान पाता है। और जब भी तुम ऐसी विस्मरण की दशा में होते हो कि कोई विचार नहीं, बिलकुल भूले, बिलकुल खोये, लुप्त, लीन, तल्लीन- वहीं, उसी क्षण प्रकाश की किरण उतरने लगती है। कल संध्या ही एक संन्यासी से मैं बात कर रहा था। संन्यासी जार्ज गुरजिएफ के विचारों से प्रभावित रहे हैं। पश्चिम से उनका आना हुआ है और गुरजिएफ की साधना-पद्धति से उन्होंने प्रयोग भी किया है वर्षों से। गुरजिएफ की साधना-पद्धति में एक शब्द है : 'सेल्फ-रिमेंबरिंग, आत्मॅस्मरण।' बड़ा कीमती शब्द है । उसका अर्थ वही होता है जो ध्यान का अर्थ होता है। उसका वही अर्थ होता है जो कबीर, नानक और दादू की भाषा में सुरति का होता है। स्वयं की स्मृति यानी सुरति । लेकिन शब्द में खतरा भी है, क्योंकि हम जिन लोगों से बात कर रहे हैं उनसे अगर कहो स्वयं की स्मृति सेल्फ-रिमेंबरिंग तो खतरा है, क्योंकि उन्हें स्वयं का तो कोई पता नहीं है, वे स्वयं की स्मृति कैसे करेंगे? वे तो उसी स्वयं की स्मृति कर लेंगे, जिसको वे जानते हैं। उनका 'स्वयं' तो उनका अहंकार

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