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था, अभी-अभी छूट गया; देखते-देखते छूट गया! ऐसे ही एक दिन मैं मर जाऊंगा। इस जीवन का कोई मूल्य नहीं।
बात गंभीर हो गई।
एक को साधिका घड़े में पानी भरकर लौटती थी कुएं से। पूर्णिमा की रात थी और घड़े में देखती थी पूर्णिमा के चांद का प्रतिबिंब। अचानक रस्सी टूट गई काबर दृा गई, घड़ा गिर, फूट गया, पानी बिखर गया-प्रतिबिंब भी बिखर गया और खो गया। और कहते हैं साध्वी ज्ञान को उपलब्ध हो गयी। नाचती हुई लौटी। एक बात समझ में आ गई. वही मिटता है जो प्रतिबिंब है। इसलिए प्रतिबिंबों में मत उलझो। इस जगत में तो सभी मिट जाता है, इसलिए यह जगत प्रतिछाया है, सत्य नहीं है। घड़ा क्या टूटा, काबर क्या बिखरी, उसके जीवन की सारी वासना का जाल बिखर गया। तो गंभीर बात हो गई। जिससे विराट जाना जा सके वही गंभीर बात हो जाती है। और फिर ऐसे भी लोग हैं कि तुम्हारे सामने कोई उपनिषद को दोहराता रहे और तुम ऐसे बैठे रहो जैसे भैंस के सामने कोई बीन बजाये तो भी गंभीर बात न हुई। लाख दोहराओ उपनिषद क्या होगा? ।
बोध हो तो जीवन की प्रत्येक घड़ी संदेश ला रही है। बोध हो तो पत्ते-पत्ते पर उसका नाम लिखा है। जाग सको तो हर बात महत्वपूर्ण है; न जाग सको तो कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है। तुम्हारे सिर पर कोई चोट करके कहता रहे कि बड़ी महत्वपूर्ण बात है, सुनो! सुनने की क्षमता ही नहीं है तो कहने से क्या होगा?
निश्चित, कृष्णमूर्ति का प्रेम प्रगट होता है, क्योंकि वे बार-बार चेष्टा करते हैं कि तुम सुन लो बार-बार तुम्हें हिलाते, झकझोरते हैं। उनकी करुणा पता चलती है। नाराज भी होते हैं कृष्णमूर्ति कभी। क्योंकि लाख समझाये चले जाते हैं, फिर भी मजा है।
एक मित्र मुझसे कह रहे थे। गये होंगे सुनने। और एक का आदमी सामने ही बैठा था। और कृष्णमूर्ति समझा रहे थे ध्यान से कुछ भी न होगा कोई विधि की जरूरत नहीं है; तुम जाग जाओ यहीं और अभी! और फिर उन्होंने कहा, किसी को कोई प्रश्न तो नहीं पूछना है? वह बूढ़ा खड़ा हो गया
और बोला कि ध्यान कैसे करें महाराज? उन्होंने अपना सिर ठोंक लिया। यह जो घंटे भर सिर पचाया..। वह आदमी पूछता है कि ध्यान कैसे करें!
____ ऐसे कृष्णमूर्ति को सुननेवाले तीस-तीस चालीस-चालीस साल से सुन रहे हैं, बैठे हैं। वे सुनेंगे मरते दम तक, मगर सुना नहीं। इन मुर्दो को हिलाने के लिए बार-बार वे कहते हैं. 'सुनो, गंभीर बात है! इसे तो सुन लो कम से कम। और चूके सो चूके इसे तो सुन लो!' ऐसा बार-बार कहते हैं। मगर वे बैठे जो हैं, बैठे हैं। वे इसको भी कहां सुनते हैं! यह गंभीर बात है, इसे सुनो-इसके लिए भी तो सुननेवाला चाहिए। वे इसको भी नहीं सुनते। वे बैठे जैसे, वैसे बैठे हैं। थोड़े और सम्हल कर बैठ जाते हैं कि ठीक, चलो! मगर सुनने की बात जरा कठिन है।
सुनने के लिए एक तरह का बोध, एक तरह का ' अबोध बोध' चाहिए। बुद्धिमान का बोध नहीं, निर्दोष बालक का।'अबोध बोध' कहता हूं। निर्दोष बालक का बोध चाहिए। सजगता चाहिए। शांत भाव
गाहा