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धर्म एक आग है-प्रवचन-पंद्रहवां
दिनांक 25 नवंबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना।
आचक्ष्व श्रृणु वा तात नानाशास्त्रोण्यनेकशः। तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्वविस्मरणादवते।। 14611 भोगं कर्म समाधिं वा कुरु विज्ञ तथापि ते। चित्तं निरस्तसर्वाशमत्यर्थं रोचयिष्यति।। 147।। आयासत्सकलो दुःखी नैनं जानाति कश्चन। अनेनैवोयदेशेन धन्य: प्राम्मोति निर्वतिम।। 148।। व्यापारेखिदयते यस्त निमेषोत्मेषयोरपि। तस्यालस्यधुरीणस्थ सुख नान्यस्य कस्यचित्।। 149।। हदं कृतमिदं नेति वंद्वैर्मुक्तं यदा मनः। धर्मार्थकाममोक्षेष निरयेक्ष तदा भवेत।। 1501! विरक्तो विषयदवेष्टा रागी विषयलोलय। ग्रहमोक्षविहीनस्तु न विरक्तो न रागवान। 151।।
आचक्ष्व श्रृयु वा तात नानाशास्त्रोण्यनेकशः। तथापि न तव स्वास्थ्य सर्वविस्मरणादृते ।।
अनेक शास्त्रों को अनेक प्रकार से तू कह अथवा सुन, लेकिन सबके विस्मरण के बिना तुझे शांति न मिलेगी, स्वास्थ्य न मिलेगा।'
एक जर्मन विचारक महर्षि रमण के दर्शन को उगया। दूर से आया था, बड़ी आशायें ले कर आया था। उसने रमण के सामने निवेदन किया कि बहुत कुछ आशायें ले कर आया हूं। सत्य की शिक्षा दें मुझे। सिखायें, सत्य क्या है?
रमण हंसने लगे। उन्होंने कहा. फिर तू गलत जगह आ गया। अगर सीखना हो तो कहीं और जा। यहां तो भूलना हो तो हम सहयोगी हो सकते हैं। विस्मरण करना हो तो हम सहयोगी हो सकते हैं। स्कूल है, कालेज है, विश्वविदयालय है, समाज, सभ्यता, संस्कृति-सभी का जोर सिखाने पर है-सीखो! संस्कार पर। धर्म तो आग है। जला दो सब! भस्मीभूत हो जाने दो सब जो सीखा!
शिक्षा और धर्म में एक मौलिक विरोध है। शिक्षा भरती है संस्कारों से; धर्म करता है शून्य।