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कि जब तुम सिद्ध करने जाते हो कि जगत माया है, तब भी तुम्हें इतना तो मानना ही पड़ता है कि जगत है; नहीं तो सिद्ध किसको कर रहे हो कि माया है? जब तुम सिद्ध करने जाते हो किसी के सामने कि जगत माया है तो तम इतना मानते हो कि जिसके सामने तम सिद्ध कर रहे हो, वह है। इतना तो मानते हो कि किसी की बुद्धि तुम्हें सुधारनी है रास्ते पर लानी है; कोई गलत चला गया है, ठीक लाना है। लेकिन यह तो मान्यता हो गई संसार की। यह तो तुमने मान लिया कि दूसरा है। शंकराचार्य किसको समझा रहे हैं? किससे तर्क कर रहे हैं?
नहीं, यह तर्क की बात ही नहीं। मेरा कोण कुछ और है। मैं मानता हूं यह ध्यान की एक प्रक्रिया है। यह सिर्फ ध्यान की एक विधि, एक उपाय है। इसका तुम प्रयोग करके देखो ध्यान के उपाय की तरह और तुम चकित हो जाओगे।
'यह विश्व भ्रांति मात्र है।'
तुम ऐसा मान कर एक सप्ताह चलो कि जगत सपना है। कुछ फर्क नहीं करना है, जैसा होता है वैसे ही होने देना है। सपना है तो फर्क क्या करना है? सपना है तो फर्क करोगे भी कैसे? होता तो कुछ फर्क भी कर लेते। सपना है तो बदलोगे कैसे? बदलना हो भी कैसे सकता है? यथार्थ बदला जा सकता है, सपना तो बदला नहीं जा सकता। सिर्फ दृष्टि- भेद है। दफ्तर जाना, इतना ही जानना कि सपना है। दफ्तर का काम भी करना, यह मत कहना कि अब फाइलें हटा कर बगल में रख दी, जैसा कि भारत में लोग किए हैं, फाइलें रखीं हैं, वे टेबल पर पैर पसारे बैठे हैं-जगत सपना है! करना भी क्या है! फाइलों में धरा क्या है!
दो कवि एक कवि-सम्मेलन में गये थे, एक साथ ठहरे थे। जो जवान कवि था, वह कुछ कविताएं लिख रहा था। के ने उसको उपदेश दिया। के ने कहा, 'लिखने में क्या धरा है! अरे पागल, लिखने में क्या धरा है! परमात्मा बाहर खड़ा है।'
जवान ने सुन तो लिया, लेकिन उसे बात अच्छी न लगी। थोड़ी देर बाद बूढ़े ने कहा. 'बेटा सेरीडान बुलवाओ, सिर में दर्द हुआ है। तो उस जवान कवि ने कहा. 'सेरीडान! सेरीडान!! सेरीडान में क्या धरा है? परमात्मा बाहर खड़ा है। और जब सिर में दर्द उठे, बहाना करो, न-न--1 न-न करो! सब भ्रांति है गुरुदेव! सिरदर्द इत्यादि में रखा क्या है! जब दर्द उठे, बहाना करो, न-न-न। न-न-न करो। इनकार कर दो, बस खत्म हो गई बात।'
न तो इनकार करने से सिरदर्द जाता और न फाइलें सरकाने से कुछ हल होता। नहीं, यह तो प्रयोग ध्यान का है। दफ्तर जाओ, फाइल पर काम भी करो-सपना ही है, बस इतना जान कर करो। घर आओ, पत्नी से भी मिलो, बच्चों के साथ खेलो भी सपना ही है, ऐसा ही मान कर चलो। एक सात दिन तुम एक अभिनेता हो, कर्ता नहीं। बस कोई फर्क न पड़ेगा, किसी को कानोंकान खबर भी न होगी। कोई जान भी न पाएगा और तुम्हारे भीतर एक क्रांति हो जाएगी। तुम अचानक देखोगे कर तुम वही रहे हो, लेकिन अब बोझ न रहा। कर तुम वही रहे हो, लेकिन अब अशांति नहीं। कर तुम वही रहे हो, लेकिन अब तुम अलिप्त, दूर कमल जैसे; पानी में और फिर भी पानी छूता नहीं।