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एक युग, एक दिन, एक पल, एक क्षण पर गगन से उतर चंचला आ गई। प्राण का दान दे, दान में प्राण ले अर्चना की अधर चांदनी छा गई।
तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई। थोड़ा सत्य की झलक आनी शुरू हो जाए, थोड़ा उस परम प्रियतम से मिलना शुरू हो जाए थोड़ा ही उसका आचल हाथ में आने लगे..।
तुम मिले तो प्रणय पर छटा छा गई!
तुम मिले, प्राण में रागिनी आ गई! धार्मिक व्यक्ति कोई उदास, थका-हारा, मुर्दा व्यक्ति नहीं है-जीवत, उल्लास से भरा, नाचता हुआ धार्मिक व्यक्ति है मुस्कुराता हुआ। जिसको इस बात का अहसास होने लगा कि परमात्मा ने सब तरफ से मुझे घेरा है, वह उदास रहेगा? जिसके भीतर यह प्रतीति होने लगी कि वही परमात्मा मेरे घर में भी विराजमान है, इस मेरी अस्थिपंजर की देह को भी उसने पवित्र किया है, इस मिट्टी की देह में भी उसी का मंदिर है-वह फिर उदास रहेगा? फिर तुम उसे थक हारा देखोगे? उसमें तुम एक उमंग के दर्शन पाओगे। बस उतना ही फर्क है। लेकिन चाहे तुम उमंग से नाचो और चाहे थके, उदास, हारे बैठे रहो, मूलत:, परमार्थत: कोई फर्क नहीं है-न संसारी में न असंसारी में।
परमार्थत: त्वं एक:! वस्तुत: तो तुम एक ही हो। उदास भी वही है। हंसता हुआ भी वही है। स्वस्थ भी वही बीमार भी वही। अंधेरे में खड़ा भी वही, रोशनी में खड़ा भी वही। फर्क इतना ही है कि एक ने आंख खोल
एक ने आंख बंद रखी है। फर्क कुछ बहुत नहीं। पलक जरा-सी पलक का फर्क है। आंख खुल गई-संन्यासी। आंख बंद रही-संसारी।
'यह विश्व भ्रांति मात्र है और कुछ नहीं है, ऐसा निश्चयपूर्वक जानने वाला वासना रहित और चैतन्य मात्र है। वह ऐसे शांति को प्राप्त होता है मानो कुछ नहीं है।' जरा इस भाव में जीयो! जरा इस भाव में पगो! जरा इस भाव में इबो!
__'यह विश्व भांति मात्र है।' यह ध्यान की एक प्रक्रिया है। यह कोई दार्शनिक सिद्धात नहीं; जैसा कि हिंदू समझ बैठे हैं कि यह इनका दार्शनिक सिद्धात है कि यह जगत माया है, भ्रांति है, इसको सिद्ध करना है। यह कोई तर्क की प्रक्रिया नहीं है।
शंकराचार्य के अत्यंत तार्किक होने के कारण एक बड़ी गलत दिशा मिल गई। शंकराचार्य ने बात को कुछ ऐसे सिद्ध करने की कोशिश की है जैसे यह कोई तार्किक सिद्धात है कि जगत माया है। उसके कारण दूसरे सिद्ध करने लगे कि जगत माया नहीं है। और सच तो यह है कि किसी भी तर्क से सिद्ध नहीं किया जा सकता कि जगत माया है। कोई उपाय नहीं है। इसलिए उपाय नहीं है