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इस घड़ी की कल्पना करो, जब तुम सारे जगत को स्वप्नवत मान लेते हो। तब तुम्हें बड़ी हैरानी होती है। वही दिखाई पड़ने लगता है जो है। और जो है वह एक है, अनेक नहीं।
'यह विश्व भ्रांति मात्र है और कुछ नहीं, ऐसा निश्चयपूर्वक जानने वाला वासना-रहित चैतन्य मात्र है। वह ऐसी शांति को प्राप्त होता है मानो कुछ नहीं है।'
जब तुम्हारे भीतर कोई मांग नहीं तो बाहर कुछ नहीं बचता है-एक विराट शून्य फैल जाता है, एक मौन, एक निस्तब्धता! उस निस्तब्धता में ही प्रभु के चरण पहली बार सुने जाते हैं।
'संसाररूपी समुद्र में एक ही था, है, और होगा। तेरा बंध और मोक्ष नहीं है। तू कृतकृत्य होकर सुखपूर्वक विचरा' देखते हैं इन वचनों की मुक्ति! इन वचनों की उदघोषणा!
एक एव भवांभोधावासीदस्ति भविष्यति एक ही है, एक ही था, एक ही रहेगा। इससे अन्यथा जो भी देखा हो, सपना है, झूठा है, मनगढंत
न ते बंधोउस्ति मोक्षो वा कृतकृत्य: सुखं चर। और न कहीं कोई बंध है, न कोई मोक्ष है। अगर ऐसा तू देख ले तो न कोई बंध है न कोई मोक्ष। तू मुक्त मुक्त तेरा स्वभाव है।
न ते बंधोऽस्ति मोक्षो वा कृतकृत्य: सुखं चर और फिर तू कृतार्थ हुआ। फिर प्रतिपल तेरा धन्य हुआ। फिर तू सुख से विचर।
'हे चिन्मय, तू चित्त को संकल्पों और विकल्पों से क्षोभित मत कर, शांत होकर आनंदशइरत अपने स्वरूप में सुखपूर्वक स्थित हो।
बैठा है कीचड़ पर जल चौंका मत! घट भर और चल बनाया जा सकता है अंधेरा पालतू पर मर जाती है बंद करते ही धूप मुक्ति का द्वार अभिन्न अंग है कारा का बलि वासनाओं की दो नारियल कुंठा का तोड़ो चंदन अहं का घिसो बन जाएगा तुम्हारा पशु ही प्रभु बैठा है कीचड़ पर जल चौंका मत! घट भर और चल!