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आपके बिना क्या संसार में धर्म रहेगा! खूब हवा भरते हो। जब देखते हो कि फुग्गा काफी फैल गया है, तब तुम बताते हो कि एक मंदिर बन रहा है, अब आपकी सहायता की जरूरत है। वह जो आदमी एक रुपया देता, शायद सौ रुपये दे । तुमने खूब फूला दिया है। लेकिन दान आ रहा है, वह सम्यक त्याग नहीं है। वह तो अहंकार का हिस्सा है। अहंकार से कहीं सम्यक त्याग हो सकता है?
मैंने सुना है कि एक राजनीतिज्ञ अफ्रीका के एक जंगल में शिकार खेलने गया और पकड़ लिया गया। जिन्होंने पकड़ लिया, वे थे नरभक्षी कबीले के लोग। वे जल्दी उत्सुक थे उसको खा जाने को । कढाए चढ़ा दिए गये। लेकिन वह जो उनका प्रधान था, वह उसकी खूब प्रशंसा कर रहा है। और देर हुई जा रही है। ढोल बजने लगे और लोग तैयार हैं कि अब भोजन का मौका आया जा रहा है। और ऐसा सुस्वाद भोजन - बहुत दिन से मिला नहीं था। देर होने लगी तो एक ने आ कर कहा अप
को कि इतनी देर क्यों करवा रहे हो? उसने कहा कि तुम ठहरो, यह राजनीतिज्ञ है, मैं जानता हूं । पहले इसको फूला लेने दो, जरा इसकी प्रशंसा कर लेने दो, जरा फूल कर कुप्पा हो जाए तो ज्यादा लोगों का पेट भरेगा। नहीं तो वह ऐसे ही दुबला-पतला है । ठहरो थोड़ा ! मैं जानता हूं राजनीतिज्ञ को । पहले उसके दिमाग को खूब फूला दो ।
तुम्हारा अहंकार कभी-कभी त्याग के लिए भी तैयार हो जाता है। तुमने देखा न कभी अगर त्यागी की शोभायात्रा निकलती है कि जैन मुनि आए, शोभायात्रा निकल रही है, राह के किनारे खड़े हो कर तुम्हें भी देख कर मन में उठता है : ऐसा सौभाग्य अपना कब होगा जब अपनी भी शोभायात्रा निकले! एक दफे मन में सपना उठता है कि हम भी इसी तरह सब छोड़-छाड़ कर रखा भी क्या है संसार में-शोभायात्रा निकलवा लें! लोग उपवास कर लेते हैं आठ-आठ दस-दस दिन के, क्योंकि दस दिन के उपवास के बाद प्रशंसा होती है, सम्मान मिलता है, मित्र- प्रियजन, पड़ोसी पूछने आते हैं सुख-दुख, सेवा के लिए आते हैं। बड़ा काम कर लिया! छोटे-छोटे बच्चे भी अगर घर में उपवास की महिमा हो तो उपवास करने को तैयार हो जाते हैं। सम्मान मिलता है।
अगर अहंकार को सम्मान मिल रहा हो तो त्याग सत्यता नहीं है; फिर वही पुराना रोग जारी है। कोई क्रांति नहीं घटती। क्रांति के लिए भी हमारे पास दो शब्द हैं क्रांति और संक्रांति। तो जो क्रांति जबर्दस्ती हो जाए किसी मूढ़तावश हो जाए, आग्रहपूर्वक हठपूर्वक हो जाए, वह क्रांति। लेकिन जब कोई क्रांति जीवन के बोध से निकलती है तो संक्रांति। सहज निकलती है तो संक्रांति।
'संत्यज' का अर्थ होता है. सम्यकरूपेण बोधपूर्वक छोड़ दो। किसी कारण से मत छोड़ो। व्यर्थ है, इसलिए छोड़ दो। धन को इसलिए मत छोड़ो कि धन छोड़ने से गौरव मिलेगा, त्यागी की महिमा होगी या स्वर्ग मिलेगा या पुण्य मिलेगा और पुण्य को भंजा लेंगे भविष्य में। तो फिर सम्यक त्याग हुआ, असम्यक हो गया। इसलिए छोड़ दो कि देख लिया कुछ भी नहीं है।
तुम एक पत्थर लिए चलते थे सोच कर कि हीरा है, फिर मिल गया कोई पारखी, उसने कहा 'पागल हो? यह पत्थर है, हीरा नहीं । '
एक जौहरी मरा। उसका बेटा छोटा था। उसकी पत्नी ने कहा कि तू अपने पिता के मित्र एक