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श्रद्धा का अर्थ है : प्रश्न को गिरा दो, प्रश्न मत उठाओ। जो है, है; जो नहीं है, नहीं है-इस भाव में राजी हो जाओ। इस राजीपन में ही साक्षी का जन्म होगा। इस परम स्वीकार- भाव में ही साक्षी के भाव का उदय होता है। तो श्रद्धा के क्षितिज पर ही साक्षी का सूरज निकलता है, साक्षी की सुबह होती है। श्रद्धा के बिना तो साक्षी जन्म ही नहीं सकता।
__ ऐसा समझो. संदेह-तो तुम विचारक हो जाओगे; साक्षी-तो तुम मनीषी हो जाओगे। संदेह-तो तुम तर्कयुक्त हो जाओगे। श्रद्धा तो तुम तर्कशून्य हो जाओगे। विचार उपयोगी है अगर दूसरे के संबंध में कुछ खोज करनी है। जाना पड़ेगा, यात्रा करनी पड़ेगी, तरंगों पर सवार होना होगा। दसरा तो दर है, अपने और उसके बीच सेतु बनाने होंगे। तो विचार के सेतु फैलाने होंगे। लेकिन स्वयं पर आने के लिए तो कोई सेतु बनाने की जरूरत नहीं। स्वयं पर आने के लिए तो कोई मार्ग भी नहीं चाहिए। वहां तो तुम हो ही।
साक्षी का इतना ही अर्थ है. उसे जानने की चेष्टा, जो हम हैं। उसे जानने की चेष्टा में किसी विचार की कोई तरंगों का उपयोग नहीं है। पर ध्यान रखना, जब मैंने श्रद्धा के संबंध में तुम्हें समझाया तो बार-बार कहा कि श्रद्धा विश्वास का नाम नहीं है। विश्वास तो फिर संदेह ही है।
एक आदमी कहता है मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं। अगर इसके भीतर ठीक से छानबीन करोगे तो तुम पाओगे इसका ईश्वर में संदेह है। नहीं तो विश्वास की क्या जरूरत? विश्वास तो संदेह को दबाने का नाम है, छिपाने का नाम है। विश्वास तो ऐसा है जैसे कपड़े। तुम नग्न हो, कपड़ों में ढांक लिया-ऐसा लगने लगता है कि नंगे नहीं रहे। कपड़ों के भीतर नंगे ही हो। कपड़े पहनने से नग्नता थोड़े ही मिटती है; दूसरों को दिखाई नहीं पड़ती। ऐसे ही विश्वास के वस्त्र हैं। इससे संदेह नहीं मिटता। इससे तर्क भी नहीं मिटता। इससे विचार भी नहीं मिटता।।
तो तुम अधार्मिक को, नास्तिक को भी विचार करते पाओगे, धार्मिक को भी विचार करते पाओगे। एक ईश्वर के विपरीत विचार करता है, एक ईश्वर के पक्ष में विचार करता है, लेकिन विचार से दोनों का कोई छुटकारा नहीं। एक प्रमाण जुटाता है कि ईश्वर नहीं है, एक प्रमाण जुटाता है कि ईश्वर है। ईश्वर के लिए प्रमाण की जरूरत है? जिसके लिए प्रमाण की जरूरत है वह तो ईश्वर नहीं। और जो मनुष्य के प्रमाणों पर निर्भर है वह तो ईश्वर नहीं। जिसका सिद्ध- असिद्ध होना मेरे ऊपर
और है, वह दो कौडी का हो गया। ईश्वर तो है; तम चाहे प्रमाण पक्ष में जटाओ, चाहे विपक्ष में जुटाओ, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। ईश्वर के होने में भेद नहीं पड़ता। ईश्वर -यानी अस्तित्व। ईश्वर यानी होने की यह जो घटना है; बाहर-भोतर जो मौजूद है यह मौजूदगी, यह उपस्थिति चैतन्य की-यही ईश्वर है। इसके लिए प्रमाण की कोई जरूरत नहीं है।
श्रद्धा विश्वास नहीं है। विश्वास तो प्रमाण जुटाता है, श्रद्धा तो आंख खोल कर देख लेने का नाम है। श्रद्धा दर्शन है। इसलिए जैन परिभाषा में तो दर्शन और श्रद्धा एक ही अर्थ रखते हैं। दर्शन को ही श्रद्धान कहा है महावीर ने और श्रद्धा को ही दर्शन कहा है। श्रद्धा तो आंख खोल कर देख लेना है। ऐसा समझो कि एक अंधा आदमी है। वह टटोल-टटोल कर रास्ता खोजता है, पूछ-पूछ कर चलता