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आज फिर एक बार तुमको बुलाता हूं
और जो मैं हूंn
जो जाना-पहचाना, जीया
अपनाया है, मेरा है,
धन है, संचय है,
उसकी एक-एक कनी को न्योछावर लुटाता हूं ।
जो अब तक जीया, जाना, पहचाना सब न्योछावर करो, लुटा दो! भूलो, बिससे! अतीत को जाने दो। जो नहीं हो गया, नहीं हो गया। राह खाली करो ताकि जो होने को है, वह हो। यह कूड़ा-कर्कट हटाओ।
आज फिर एक बार तुमको बुलाता हूं
और जो मैं हूं
जो जाना-पहचाना, जीया
अपनाया है, मेरा है
धन है, संचय है,
उसकी एक-एक कनी को न्योछावर लुटाता हूं ।
प्रभु के द्वार पर तो जब तुम नंगे, रिक्त हाथ, इतने रिक्त हाथ कि तुम भी नहीं, केवल एक
शून्य की भांति खड़े हो जाते हो - तभी तुम्हारी झोली भर दी जाती है।
मंदिर तुम्हारा है, देवता हैं किसके ? प्रणति तुम्हारी है, फूल झरे किसके ? नहीं-नहीं मैं झरा, मैं झुका
मैं ही तो मंदिर हूं और देवता तुम्हारा
वहां भीतर पीठिका पर टिके
प्रसाद से भरे तुम्हारे हाथ
और मैं यहां देहरी के बाहर ही सारा रीत गया।
जिस दिन तुम देहरी के बाहर ही सारे रीत जाओगे, उस दिन प्रभु के 'प्रसाद भरे हाथ बस तुम्हारी झोली में ही उंडल जाते हैं।
वहां भीतर पीठिका पर टिके
प्रसाद से भरे तुम्हारे हाथ
और मैं यहां देहरी के बाहर ही सारा रीत गया !
तो, यदि भरना चाहो । मिटो, अगर होना चाहो । शून्य को ही पूर्ण का आतिथ्य मिलता है।
आखिरी प्रश्न :