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प्रभु की प्रथम आहट-निस्तब्धता में-प्रवचन-तैहरवां
दिनांक 23 नवंबर, 1976; रजनीश आश्रम, पूना।
अष्टावक्र उवाच।
यत्वं पश्यसि तत्रैकस्लमेव प्रतिभाससे। किं पृथक भासते स्वर्णात्कट कांगदनुपरम्।। 139।। अयं सोउहमयं नाहं विभागमिति संत्यज। सर्वमात्मेति निश्चित्य नि:संकल्य सुखी भव!! 1401/ तवैवाज्ञानतो विश्व त्वमेक: परमार्थतः।। त्वत्तोउन्यो नास्ति संसारी नासंसारी व कश्चन।। 141।। भांतिमात्रमिदं विश्व न किचिदिति निश्चयरई। निर्वासन: स्फर्तिमात्रो न किचिदिवि शाम्यति।। 142।। एक एव भवाभोधावासीदस्ति भविष्यति।। न ते बंधोउस्ति मोक्षो वा कृतकृत्य सुख चर।। 143।। मा संकल्यविकल्याथ्यां चित्त क्षोभय चिन्मय। उपशाम्ब सखं तिष्ठ स्वात्ययानंदविग्रहे।। 14411 त्यजैव ध्यानं सर्वत्र मा किचियदि धारय। आत्मा त्वं मुक्त श्वामि किविमश्य करिष्यसि।। 145।।
पहला सूत्रः
अष्टावक्र ने कहा, 'जिसको तू देखता है उसमें एक तू ही भासता है। क्या कंगना, बाजूबंद और नूपुर सोने से भिन्न भासते हैं?'
यत्वं पश्यसि तत्रैकस्लमेव प्रतिभाससे। जगत जैसे दर्पण है: हम अपने को ही बार-बार देख लेते हैं; अपनी ही प्रतिछवि बार-बार खोज लेते हैं। जो हम हैं, वही हमें दिखाई पड़ जाता है। साधारणत: हम सोचते हैं, जो हमें दिखाई पड़ रहा है, बाहर है। फूल में सौंदर्य दिखा तो सोचते हैं, सुंदर होगा फूल। नहीं, सौंदर्य तुम्हारी आंखों में हैं। वही फूल दूसरे को सुंदर न भी हो। किसी तीसरे को उस फूल में न सौंदर्य हो, न असौंदर्य हो, कोई तटस्थ भी हो। किसी चौथे को उपेक्षा हो। जो तुम्हारे भीतर है वही झलक जाता है। किसी बात में