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जिस ठौर की मौजे रागों की रस के सागर से झूल झपट जीवन के तट पर टकराती । तन त्रस्त कहीं मन मस्त वहीं जिस ठौर लहरियां रागों की
रस के मानस की गोदी में
चिर सुषमा का सावन गातीं ।
लेकिन तन के रास्ते से गुजरना होगा। बिना गुजरे नहीं कुछ मिल सकेगा। क्रांति घटेगी निश्चित घटेगी, लेकिन सस्ती नहीं घटती- अर्जित करनी है।
यहां दूसरा वर्ग भी है सुनने वालों का, जो पक कर आया है। उसकी बात कुछ और हो जाती
है।
एक मित्र ने लिखा है :
तेरे मिलन में एक नशा है गुलाबी
उसी को पी कर के चूर हूं मैं
अब खो गया हूं होश में
बेहोश होने का गरूर है मुझे।
एक दूसरे मित्र ने लिखा है.
प्रभु अभाव के आंसुओ में डूबे मेरे प्रणाम स्वीकार करें और पाथेय व आशीष दें कि अचेतन में छिपी वासनाओं के बीज दग्ध हो जायें ।
एक और मित्र ने लिखा खै :
मैं अज्ञानी मूढ़ जनम से
इतना भेद न जाना किसको मैं समझें अपना किसको समझें बेगाना कितना बेसुर था यह जीवन डाल न पाया इसको लय में इन अधरों पर हंसी नहीं थी चमक नहीं थी इन आंखों में लेकिन आज दरस प्रभु का पा सब कुछ मैंने पाया !