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था। तो हसीद फकीर तो ऐसी बात कहते हैं जो पश्चिम के यात्री को जंच सकती हैं। हसीद फकीर तो कहते हैं, परमात्मा का है यह संसार । सब राग-रंग उसका । पत्नी-बच्चे भी ठीक। भोग में ही प्रार्थना को जगाना है। भोग भी प्रार्थना का ही एक ढंग है। तो जम रहा था। फिर बुद्ध के वचन आये | और बुद्ध के वचनों में बुद्ध ने ऐसी बातें कही हैं कि स्त्री क्या है? हड्डी, मांस, मज्जा का ढेर! चमड़े का एक बैग, थैला, उसमें भरा है कूड़ा-कबाड़, गंदगी !
तो अनेक पश्चिमी मित्रों ने पत्र लिख कर भेजे कि बुद्ध की बात हमें जमती नहीं और बड़ी तिलमिलाती है। एक स्त्री ने तो लिख कर भेजा कि मैं छोड़ कर जा रही हूं। यह भी क्या बात है! मैं तो यहां इसलिए आयी थी कि मेरा प्रेम कैसे गहरा हो? और यहां तो विराग की बातें हो रही हैं। अब अगर तुम प्रेम गहरा करने आये हो तो निश्चित ही बुद्ध की बात बड़ी घबराहट की लगेगी। वह स्त्री तो नाराजगी में छोड़ कर चली भी गयी । यह तो पत्र लिख गयी कि यह बात मैं सुनने आयी नहीं हूं न मैं सुनना चाहती हूं। शरीर तो सुंदर है और ये कहते हैं कूडा-कर्कट, गंदगी भरी है। बुद्ध के वचन सुनने हों और अगर तुम प्रेम की खोज में आये हो तो बड़ी मुश्किल हो जायेगी। 'समाधि' ने अभी संसार जीया नहीं - जीने की आकांक्षा है। और जीने की हिम्मत भी नहीं ।
मेरे पास युवक आ जाते हैं, जो कहते हैं कामवासना से छुटकारा दिलवाइये। ब्रह्मचर्य की बात जंचती है। अभी युवक हैं। अभी कामवासना का दुख भी नहीं भोगा, तो छुटकारा कैसे होगा? और कामवासना में जाने की हिम्मत भी नहीं है। क्योंकि वे कहते हैं उत्तरदायित्व हो जायेगा; शादी कर ली, बच्चे हो जायेंगे, फिर संन्यास का क्या होगा? फिर निकल पायेंगे कि नहीं निकल पायेंगे? झंझट से डरे भी हैं। और झंझट झंझट है, ऐसा अभी स्वयं का अनुभव भी नहीं है।
तो मैं तो उनसे कहता हूं. झंझट उठा लो । धर्म इतना सस्ता नहीं है। धर्म तो जीवन के अनुभव से ही आता है।
तो तुम अगर कुछ सुनने आये हो, तुम्हारी कुछ मान्यता है, कुछ धारणा है, भीतर कोई रस है, उससे मेल न खायेगी बात, तो तुम ऊबोगे, परेशान होओगे। तुम्हें लगेगा व्यर्थ की बकवास चल रही है। लेकिन अगर तुम खाली आये हो, खोज की घड़ी आ गयी है, फल पक गया है, तो हवा का जरा-सा झोंका, और फल गिर जायेगा ! यह जो मैं तुमसे कह रहा हूं तूफानी हवा बहा रहा हूं। अगर फल जरा भी पका है तो गिरने ही वाला है। अगर नहीं गिरता है तो कच्चा है और अभी गिरने का समय नहीं आया है।
पको! जल्दी है भी नहीं । मत सुनो मेरी बात। जहां से ऊब आती हो, सुनना ही क्यों? जाना क्यों? छोड़ो! जहां रस आता हो वहां जाओ। अगर जीवन में रस आता हो तो घबराओ मत। ऋषि-मुनियों की मत सुनो! जाओ जीवन में उतरो ! नरक को भोगोगे तो ही नरक से छूटने की आकांक्षा पैदा होगी। दुख को जानोगे तो ही रूपांतरण का भाव उठेगा।
यह क्रांति सस्ती नहीं है। केवल उन्हीं को होती है जिनके स्वानुभव से ऐसी घड़ी आ जाती है, जहां उन्हें लगता है, बदलना है। नहीं कि किसी ने समझाया है, इसलिए बदलना है। जहां खुद ही