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देखते हैं, मैंने गेरुआ पहना दिया है! उससे व्यक्तित्व क्षीण होता है। तो बौद्ध भिक्षु एक-सा वस्त्र पहनता है, सिर घुटे होते, एक-से कृत्य करता है, एक-सी चाल चलता है। वही रोज । फिर ध्यान चल कर करना है, फिर बैठ कर करना है, फिर चल कर करना है। दिन भर ध्यान...! फिर वही गुरु, फिर वही प्रश्न, फिर वही उत्तर, फिर वही प्रवचन, फिर वही बुद्ध के सूत्र फिर रात, फिर ठीक समय पर सो जाना है। वही भोजन रोज !
तुम चकित होओगे कि झेन आश्रमों में उन्होंने वृक्ष तक हटा दिये हैं। क्योंकि वृक्षों में रूपांतरण होता रहता है। कभी पत्ते आते, कभी झर जाते; कभी फूल खिलते, कभी नहीं खिलते। मौसम के साथ बदलाहट होती है। तो इतनी बदलाहट भी पसंद नहीं की । झेन आश्रमों में उन्होंने रेत और चट्टान के बगीचे बनाये हैं। उनके ध्यान-मंदिर के पास जो बगीचा होता है, रॉक गार्डन, वह पत्थर और चट्टान का बना होता है, और रेत । उसमें कभी कोई बदलाहट नहीं होती है। वह वैसा का वैसा प्रतिदिन | तुम फिर आये, फिर आये वही का वही, वही का वही ! क्या प्रयोजन है यह? इसके पीछे कारण है। जब तुम वही वही सुनते, वही - वही करते, वही - वही चारों तरफ बना रहता तो धीरे- धीरे तुम्हारी नये की जो आकांक्षा है बचकानी, वह विदा हो जाती है। तुम राजी हो जाते हो। तो मन का कुतूहल मर जाता है और कुछ उत्तेजना खोजने की आदत खो जाती है।
ऊब से गुजरने के बाद एक ऐसी घड़ी आती है जहां शांति उपलब्ध होती है। नये का खोजी कभी शांत नहीं हो सकता। नये का खोजी तो हमेशा झंझट में रहेगा। क्योंकि हर चीज से ऊब पैदा हो जायेगी। तुम देखते नहीं, एक मकान में रह लिये, जब तक नया था, दो-चार दिन ठीक, फिर पंचायत शुरू। फिर यह कि कोई दूसरा मकान बना लें, कि दूसरा खरीद लें। एक कपड़ा पहन लिया, अब फिर दूसरा बना लें।
स्त्रियां, देखते हो साड़ियों पर साड़िया रखे रहती हैं। घंटों लग जाते हैं उन्हें, पति हॉर्न बजा रहा है नीचे। ट्रेन पकड़नी, कि किसी जलसे में जाना, कि शादी हुई जा रही होगी और ये अभी यह घर से नहीं निकले हैं और पत्नी अभी यही नहीं तय कर पा रही है... एक साड़ी निकालती, दूसरी निकालती। साड़ी का इतना मोह ! नये का, बदलाहट का ! जो साड़ी एक दफा पहन ली, फिर रस नहीं आता। वह तो दिखा चुकी उस साड़ी में अपने रूप को, अब दूसरा रूप चाहिए। बाल के ढंग बदली । बाल की शैली बदलो। नये आभूषण पहनो। कुछ नया करो!
यही तो बचकाना आदमी है। यही आग्रह ले कर अगर तुम यहां भी आ गये कि मैं तुमसे रोज नयी बात कहूं तो तुम गलत जगह आ गये। मैं तो वही कहूंगा। मेरा स्वर तो एक है। सुनते सुनते धीरे- धीरे तुम्हारे मन की यह चंचलता - नया हो - खो जायेगी। इसके खोने पर ही जो घटता है, वह शांति है। ऊब से गुजर जाने के बाद जो घटता है वह शांति है।
तो यह प्रवचन सिर्फ प्रवचन नहीं है, यह तो ध्यान का एक प्रयोग भी है। इसलिए तो रोज बोले जाता हूं। कहने को इतना क्या हो सकता है? करीब तीन साल से निरंतर रोज बोल रहा हूं। और तीस साल भी ऐसे ही बोलता रहूंगा, अगर बचा रहा। तो कहने को नया क्या हो सकता है ? तीन सौ