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यहां तो मैं चाहता हूं कि तुम्हारे पूरे जीवन का वसंत खिल उठे। तुम इक्के-दुक्के फूलों की मांग मत करो, नहीं तो पीछे पछताओगे। विराट हो सकता था और तुम छोटे की मांग करते रहे।
तुम्हारी अड़चन भी मैं समझता हूं। मेरे पास लोग आ जाते हैं। एक मित्र आये संन्यास लिया। संन्यास जब ले रहे थे, तभी मुझे थोड़ा-सा बेबूझ मालूम पड़ रहा था, क्योंकि उनके चेहरे पर संन्यास का कोई भाव न था। पैर भी छुए थे लेकिन पैर छूने में परंपरागत आदत मालूम पड़ी थी, प्रसाद न था। मांगते थे संन्यास तो मैंने दे दिया। संन्यास लेते ही उन्होंने क्या कहा कहा कि मैं बड़ी उलझन में पड़ा हूं उसी लिए आया हूं । मेरी बदली करवा दें। पठानकोट में पड़ा हूं और शची जाना है। यही सोचकर भगवान आपके चरणों में आ गया हूं कि अगर इतना आप न करेंगे, ऐसा कैसे हो सकता है! इतना तो आप करेंगे ही।
मैंने उनसे पूछा. सच - सच कहो, संन्यास इसलिए तो नहीं लिया? रिश्वत की तरह तो नहीं लिया कि चलो संन्यास ले लिया तो यह कहने का हक रहेगा?
कहने लगे. अब आप तो सब जानते ही हैं, झूठ भी कैसे कहूं? संन्यास इसीलिए ले लिया है..... कि संन्यास लेने से तो मेरे हो गये, अब तो मैं फिक्र करूं !
लेकिन क्या फिक्र करवा रहे हो? पठानकोट से राची! क्या फर्क पड़ जायेगा? क्या मांग रहे हो? इतने स्पष्ट रूप से शायद बहुत लोगों की मांग नहीं भी होती है, लेकिन गहरे में खोजोगे, अचे में झाकोगे तो ऐसी ही मांगें छिपी पाओगे ।
विद्यार्थी आ जाते हैं, वे कहते हैं कि ध्यान करना है ताकि स्मृति ठीक हो जाये। तुम्हारी स्मृति से करना क्या है? बड़े-बड़े स्मृति वाले क्या कर पाये हैं? परीक्षा पास करनी है, कि प्रथम आना है, कि गोल्ड मेडल लाना है तो ध्यान कर रहे हैं!
कोई आ जाता है, शरीर रुग्ण है। वह कहता है, शरीर रुग्ण रहता है। डॉक्टर कहता है कि कुछ मानसिक गड़बड़ है, इसलिए रुग्ण है। तो ध्यान कर रहे हैं!
तुम क्षुद्र मांग रहे हो विराट से । तुम्हें क्षुद्र तो मिलेगा ही नहीं, विराट से भी चूक जाओगे।
रस तो अनंत था, अंजुरी भर ही पिया
जी में वसंत था, एक फूल ही दिया
मिटने के दिन आज मुझको यह सोच है कैसे बड़े युग में कैसा छोटा जीवन जिया!
पीछे पछताओगे! 'मैं' के आसपास खड़ी हुई कोई भी मांग मत उठाओ। मैं के पार कुछ मांगो। आज फिर एक बार मैं प्यार को जगाता हूं
खोल सब मुंदे द्वार
इस मारू, धूम, गंध
रुंधे सोने के घर के हर कोने को
सुनहली खुली धूप में नहलाता हूं