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होता है कि तुम उसे पकड़ नहीं पाते-आया और गया।
ध्यान में हम उसी को गहराई से पकड़ने की चेष्टा करते हैं। वह जो सौंदर्य दे जाता है, प्रेम दे जाता है, सत्य की थोड़ी प्रतीतिया दे जाती हैं, जहां से थोड़े-से झरोखे खुलते हैं अनंत के प्रति-उसे हम ध्यान में और प्रगाढ़ हो कर पकड़ने की कोशिश करते हैं।
और यही इस जगत में बड़े से बड़ा कृत्य है। ध्यान रखना मैं कहता हूं कृत्य। कृत्य यह है नहीं। क्योंकि कर्ता इसमें नहीं है। लेकिन भाषा का उपयोग करना पड़ता है। यह जगत में सबसे बड़ा कृत्य है जो कि बिलकुल ही करने से नहीं होता-होने से होता है।
माना कि बाग जो भी चाहे लगा सकता है लेकिन वह फूल किसके उपवन में खिलता है? -जिसके रंग तीनों लोकों की याद दिलाते हैं
और जिसकी गंध पाने को देवता भी ललचाते हैं। वह है साक्षी का फूल। बगिया तो सभी लगा लेते हैं-कोई धन की, कोई पद की। बगिया तो सभी लगा लेते हैं। लेकिन वह फूल किसके बगीचे में खिलता है, जिसके लिए देवता भी ललचाते हैं? वह तो खिलता है, जब तुम खिलते हो। वह तो तुम्हारा ही फूल है तुम्हारा ही सहस्र-दल कमल, तुम्हारा ही सहस्रार; तुम्हारे ही भीतर छिपी हुई संभावना जब पूरी खिलती है। साक्षी में खिलती है। क्योंकि कोई बाधा नहीं रह जाती।
जब तक तुम कर्ता हो, तुम्हारी शक्ति बाहर नियोजित रहती है। विचारक हो तो शक्ति मन में नियोजित रहती है। कर्ता हो तो शरीर से बहती रहती है, विचारक हो तो मन से बहती रहती है।
म बंद-बंद झरते रहते हो। तुम कभी संग्रह नहीं हो पाते ऊर्जा के। तुम्हारी बाल्टी में छेद हैं स्ब बह जाता है।
साक्षी का इतना ही अर्थ है कि न तो कर्ता रहे. न चिंतक रहे: थोडी देर को कर्ता, चिंता दोनों छोड़ दीं। कर्ता न रहे तो शरीर से अलग हो गये; चिंतक न रहे तो मन से अलग हो गये। इस शरीर और मन से अलग होते ही तुम्हारी जीवन-ऊर्जा संगृहीत होने लगती है। गहन गहराई आती है। उस गहराई में जो जाना जाता, उसे ज्ञानी साक्षी कहते; भक्त परमात्मा कहते। वह शब्द का भेद है।
दूसरा प्रश्न :
आप अष्टावक्र के बहाने इतने ऊंचे आकाश की चर्चा कर रहे हैं कि सब सिर के ऊपर से बहा जा रहा है। आप जरा हमारी ओर तो निहारिये! हम त्रिशंकु की भांति हैं। न धरती पर हमारे पैर जमे हैं, न आकाश में उड़ने की सामर्थ्य है। कृपया हमें देख कर कुछ कहिये!